फ़ारूक़ शफ़क़ के शेर
दिन किसी तरह से कट जाएगा सड़कों पे 'शफ़क़'
शाम फिर आएगी हम शाम से घबराएँगे
होने वाला था इक हादसा रह गया
कल का सब से बड़ा वाक़िआ रह गया
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अपनी लग़्ज़िश को तो इल्ज़ाम न देगा कोई
लोग थक-हार के मुजरिम हमें ठहराएँगे
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आँधियों का ख़्वाब अधूरा रह गया
हाथ में इक सूखा पत्ता रह गया
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शहर में जीना है चलना दो-रुख़ी तलवार पर
आदमी किस से बचे किस की तरफ़-दारी करे
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सामने झील है झील में आसमाँ
आसमाँ में ये उड़ता हुआ कौन है
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ज़ेहन की आवारगी को भी पनाहें चाहिए
यूँ न शम्ओं को किसी दहलीज़ पर रख कर बुझा
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शहर का मंज़र हमारे घर के पस-ए-मंज़र में है
अब उधर भी अजनबी चेहरे नज़र आने लगे
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आज सोचा है जागूँगा मैं रात में
कच्चे फल सा मुझे तोड़ता कौन है
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इस सियह-ख़ाने में तुझ को जागना है रात भर
इन सितारों को न बे-मक़्सद हथेली पर बुझा
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सुना है हर घड़ी तू मुस्कुराता रहता है
मुझे भी जज़्ब ज़रा कर के जिस्म-ओ-जाँ में मिला
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