फ़ारूक़ शमीम के शेर
हैं राख राख मगर आज तक नहीं बिखरे
कहो हवा से हमारी मिसाल ले आए
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वक़्त इक मौज है आता है गुज़र जाता है
डूब जाते हैं जो लम्हात उभरते कब हैं
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झूट सच में कोई पहचान करे भी कैसे
जो हक़ीक़त का ही मेयार फ़साना ठहरा
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अपने ही फ़न की आग में जलते रहे 'शमीम'
होंटों पे सब के हौसला-अफ़ज़ाई रह गई
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धूप छूती है बदन को जब 'शमीम'
बर्फ़ के सूरज पिघल जाते हैं क्यूँ
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हर एक लफ़्ज़ में पोशीदा इक अलाव न रख
है दोस्ती तो तकल्लुफ़ का रख-रखाव न रख
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हिसार-ए-ज़ात से कट कर तो जी नहीं सकते
भँवर की ज़द से यूँ महफ़ूज़ अपनी नाव न रख
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