फ़ौज़िया रबाब के शेर
देख सुक़रात ने बस ज़हर पिया था लेकिन
ज़िंदगी मैं तो तुझे घोल के पी जाऊँगी
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तुम्हारी याद है मातम-कुनाँ अभी मुझ में
तुम्हारा दर्द अभी तक सियह लिबास में है
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कुछ इस लिए भी मुझे कामयाबी मिलती है
मैं अपने बाबा के नक़्श-ए-क़दम पे चलती हूँ
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आज फिर तुम को हम ने देखा है
आज महशर बनी हैं ये आँखें
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हम ने ग़ज़लों में जो उतारा है
तिरी आँखों का इस्तिआ'रा है
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मेरे ख़्वाबों में रोज़ आती हैं
अपनी आँखें सँभाल कर रखिए
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मेरी बीनाई कम नहीं होगी
मेरी आँखों में माँ का चेहरा है
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मुझ को हर लम्हा मिरी माँ से मोहब्बत है 'रबाब'
मैं किसी रोज़ भुला दूँ उसे मुमकिन ही नहीं
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इश्क़ जब से मुझे मयस्सर है
ख़ुद को होती नहीं मयस्सर मैं
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तीरगी जो बढ़ती है इक दिया जलाती हूँ
यूँ भी अपनी हस्ती को आइना बनाती हूँ
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जब वो कहती है यूँ कि उफ़ तौबा
मेरी तौबा ही टूट जाती है
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कूज़ा-गर मैं तिरी मोहब्बत में
अपनी सूरत बिगाड़ लेती हूँ
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कहा उस ने बताओ मेरे बिन ये ज़िंदगी क्या है
कहा मैं ने वही जो पानियों मैं झाग होते हैं
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मुझ से पूछा जो किसी ने तिरी पहचान बता
मैं पुकारी मैं तुम्हारी मैं तुम्हारी मौला
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सर पे गर साएबाँ नहीं तो क्या
भय्या मेरा तो कुल जहाँ हो तुम
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