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Fazl Tabish's Photo'

फ़ज़्ल ताबिश

1933 - 1995 | भोपाल, भारत

फ़ज़्ल ताबिश के शेर

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कर शुमार कि हर शय गिनी नहीं जाती

ये ज़िंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती

सुनते हैं कि इन राहों में मजनूँ और फ़रहाद लुटे

लेकिन अब आधे रस्ते से लौट के वापस जाए कौन

कमरे में के बैठ गई धूप मेज़ पर

बच्चों ने खिलखिला के मुझे भी जगा दिया

रात को ख़्वाब बहुत देखे हैं

आज ग़म कल से ज़रा हल्का है

वही दो-चार चेहरे अजनबी से

उन्हीं को फिर से दोहराना पड़ेगा

ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है

मिरे अंदर उतर जाता तो सोता

सूरज ऊँचा हो कर मेरे आँगन में भी आया है

पहले नीचा था तो ऊँचे मीनारों पर बैठा था

ये बस्ती कब दरिंदों से थी ख़ाली

मैं फिर भी ठीक लोगों में रहा हूँ

उसे मालूम है मैं सर-फिरा हूँ

मगर ख़ुश है कि उस को चाहता हूँ

माँगने से हुआ है वो ख़ुद-सर

कुछ दिनों कुछ माँग कर देखो

हर इक शय ख़ून में डूबी हुई है

कोई इस तरह से पैदा होता

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