Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
noImage

ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी

1740 - 1792

ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी के शेर

284
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

कभी हाथ भी आएगा यार सच कह

या यूँही तू बातें बनाता रहेगा

यार गर पूछे तो कीजे कुछ अर्ज़

बात पर बात कही जाती है

अदा को तिरी मेरा जी जानता है

हरीफ़ अपना हर कोई पहचानता है

दीन दुनिया का जो नहीं पाबंद

वो फ़राग़त तमाम रखता है

कब इस जी की हालत कोई जानता है

जो जी जानता है सो जी जानता है

है अफ़्सोस उम्र जाने का तेरे

कि तू मेरे पास एक मुद्दत रही है

इश्क़ में दर्द से है हुर्मत-ए-दिल

चश्म को आबरू है आँसू से

हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है

दिल सा क़िबला छोड़ के तू ने का'बे का एहराम किया

हैं शैख़ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे

तकल्लुफ़ बरतरफ़ आशिक़ हैं अपने यार के बंदे

शब-ए-हिज्र में एक दिन देखना

अगर ज़िंदगी है तो मर जाएँगे

बहर तू इतना उमँड चल मिरे आगे

रो रो के डुबा दूँगा कभी गई गर मौज

ग़ैर वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही मुझ सा भी

एक तिरी जनाब में ख़ाम रहा तो क्या हुआ

इश्क़ में ख़ूब नीं बहुत रोना

इस से इफ़शा-ए-राज़ होता है

तू जल्दी कर दस्त-ए-जुनूँ नासेह को सीने दे

बहार पहुँची अब कोई ठहरते हैं रफ़ू इस के

और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन

कहता है कि हरगिज़ मिरा ज़ुन्नार टूटे

अबस घर से अपने निकाले है तू

भला हम तुझे छोड़ कर जाएँगे

तुझ बिन इक दल हो पास रहता है

वो भी अक्सर उदास रहता है

गर शैख़ अज़्म-ए-मंज़िल-ए-हक़ है तो इधर

है दिल की राह सीधी का'बे की राह कज

कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है

मैं अपने बुत का बरहमन हूँ साफ़ तो ये है

आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से

क्यूँ मुँह फुला रहा है वो गुल-एज़ार अपना

नाचार है दिल ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के आगे

दीवाने का क्या चलता है ज़ंजीर के आगे

इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को

जैसे बस्ती को लगावे है अदू जंग में आग

आँखों से इसी तरह अगर सैल रवाँ है

दुनिया में कोई घर रहा है रहेगा

देखना ज़ोर ही गाँठा है दिल-ए-यार से दिल

संग-ओ-शीशे को किया है मैं हुनर से पैवंद

हर कोई अपनी फ़हम-ए-नाक़िस में

पुख़्ता सौदा-ए-ख़ाम रखता है

जो जी चाहे है देखूँ माह-ए-नौ कहता है दिल मेरा

इधर क्या देखता है अबरू-ए-ख़मदार के बंदे

बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की

गरेबाँ फट चुका कुइ दम में अब नौबत ही सीने की

करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन

ये काफ़िर मिरा दिल नहीं मानता है

जो शैख़ है चाहे है सर-ए-रिश्ता-ए-इस्लाम

क़ाएम रहे तस्बीह का इक तार टूटे

इक आन में जी ले गया मुँह देखते रह गए

कुछ बस नहीं इस माया-ए-तसख़ीर के आगे

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

GET YOUR PASS
बोलिए