ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी के शेर
कभी हाथ भी आएगा यार सच कह
या यूँही तू बातें बनाता रहेगा
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यार गर पूछे तो कीजे कुछ अर्ज़
बात पर बात कही जाती है
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अदा को तिरी मेरा जी जानता है
हरीफ़ अपना हर कोई पहचानता है
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दीन ओ दुनिया का जो नहीं पाबंद
वो फ़राग़त तमाम रखता है
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कब इस जी की हालत कोई जानता है
जो जी जानता है सो जी जानता है
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है अफ़्सोस ऐ उम्र जाने का तेरे
कि तू मेरे पास एक मुद्दत रही है
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इश्क़ में दर्द से है हुर्मत-ए-दिल
चश्म को आबरू है आँसू से
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हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है
दिल सा क़िबला छोड़ के तू ने का'बे का एहराम किया
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हैं शैख़ ओ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे
तकल्लुफ़ बरतरफ़ आशिक़ हैं अपने यार के बंदे
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शब-ए-हिज्र में एक दिन देखना
अगर ज़िंदगी है तो मर जाएँगे
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ऐ बहर न तू इतना उमँड चल मिरे आगे
रो रो के डुबा दूँगा कभी आ गई गर मौज
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ग़ैर वफ़ा में पुख़्ता हैं यूँ ही सही प मुझ सा भी
एक तिरी जनाब में ख़ाम रहा तो क्या हुआ
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इश्क़ में ख़ूब नीं बहुत रोना
इस से इफ़शा-ए-राज़ होता है
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न तू जल्दी कर ऐ दस्त-ए-जुनूँ नासेह को सीने दे
बहार आ पहुँची अब कोई ठहरते हैं रफ़ू इस के
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और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
कहता है कि हरगिज़ मिरा ज़ुन्नार न टूटे
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अबस घर से अपने निकाले है तू
भला हम तुझे छोड़ कर जाएँगे
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तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
वो भी अक्सर उदास रहता है
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गर शैख़ अज़्म-ए-मंज़िल-ए-हक़ है तो आ इधर
है दिल की राह सीधी व का'बे की राह कज
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कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
मैं अपने बुत का बरहमन हूँ साफ़ तो ये है
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आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से
क्यूँ मुँह फुला रहा है वो गुल-एज़ार अपना
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नाचार है दिल ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के आगे
दीवाने का क्या चलता है ज़ंजीर के आगे
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हर कोई अपनी फ़हम-ए-नाक़िस में
पुख़्ता सौदा-ए-ख़ाम रखता है
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करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
ये काफ़िर मिरा दिल नहीं मानता है
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इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को
जैसे बस्ती को लगावे है अदू जंग में आग
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आँखों से इसी तरह अगर सैल रवाँ है
दुनिया में कोई घर न रहा है न रहेगा
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देखना ज़ोर ही गाँठा है दिल-ए-यार से दिल
संग-ओ-शीशे को किया है मैं हुनर से पैवंद
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जो जी चाहे है देखूँ माह-ए-नौ कहता है दिल मेरा
इधर क्या देखता है अबरू-ए-ख़मदार के बंदे
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बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की
गरेबाँ फट चुका कुइ दम में अब नौबत ही सीने की
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जो शैख़ है चाहे है सर-ए-रिश्ता-ए-इस्लाम
क़ाएम रहे तस्बीह का इक तार न टूटे
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इक आन में जी ले गया मुँह देखते रह गए
कुछ बस नहीं इस माया-ए-तसख़ीर के आगे
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