हातिम अली मेहर के शेर
सारी इज़्ज़त नौकरी से इस ज़माने में है 'मेहर'
जब हुए बे-कार बस तौक़ीर आधी रह गई
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अबरू का इशारा किया तुम ने तो हुई ईद
ऐ जान यही है मह-ए-शव्वाल हमारा
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मार डाला तिरी आँखों ने हमें
शेर का काम हिरन करते हैं
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अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ
आँख के लड़ने से पहले जी लड़ा बैठे हैं हम
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हम भी बातें बनाया करते हैं
शेर कहना मगर नहीं आता
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दाग़ों की बस दिखा दी दिवाली में रौशनी
हम सा न होगा कोई जहाँ में दिवालिया
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दोनों रुख़्सार इनायत करें इक इक बोसा
आशिक़ों के लिए सरकार से चंदा हो जाए
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मैं जीता हूँ देखे से सूरत तुम्हारी
मुझे है निहायत ज़रूरत तुम्हारी
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मैं ने माना आप ने बोसे दिए मैं ने लिए
वो कहाँ निकली जो है मेरी तमन्ना एक और
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कोई होगा न ख़रीदार हमारे दिल का
तुम तो बाज़ार में हड़ताल किए जाते हो
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पाँव पूजूँ मैं अपने हाथों के
उन की अंगिया के बंद खोले हैं
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किसी का रुख़ हमें क़ुरआन का जवाब मिला
ख़ुदा का शुक्र है बुत साहिब-ए-किताब मिला
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नमाज़-ए-सुब्ह वो ही पढ़ रहे थे का'बे में
जनाब-ए-'मेहर' जो मंदिर में थे पुजारी रात
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अब्र आए तो शराब पिएँ बादा-ख़्वार हैं
उम्मीद-वार-ए-रहमत-ए-परवरदिगार हैं
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याद रखने की ये बातें हैं बजा है सच है
आप भूले न हमें आप को हम भूल गए
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रातों को बुत बग़ल में हैं क़ुरआँ तमाम दिन
हिन्दू तमाम शब हूँ मुसलमाँ तमाम दिन
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ज़ाहिद हरम में बैठ के ख़ाली मैं क्या करूँ
कोसों यहाँ शराब कहीं बूँद-भर नहीं
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आप ही पर नहीं दीवाना-पन अपना मौक़ूफ़
और भी चंद परी-ज़ाद हैं अच्छे अच्छे
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मय-कदा छोड़ के क्यूँ दैर-ओ-हरम में जाएँ
इस में हिन्दू रहें उस में हों मुसलमाँ आबाद
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छू जाए जो बंदे के सिवा जिस्म से तेरे
अल्लाह करे हाथ वो गल जाए तो अच्छा
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मिरी तो ख़ाक भी तेरे क़दम न छोड़ेगी
ज़रा तू आने तो दे अपने पाएमाल का वक़्त
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का'बे में हम को दैर का हर दम ख़याल था
अल्लाह जानता है बुतों का रहा लिहाज़
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याद में इक शोख़ पंजाबी के रोते हैं जो हम
आज-कल पंजाब में बहता है दरिया एक और
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पिस्ताँ हैं हबाब और शिकम बहर-ए-लताफ़त
मौजें हैं बटें पेट की दरिया का भँवर नाफ़
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रात दिन सज्दे किया करता है हूरों के लिए
कोई ज़ाहिद की नमाज़ों में तो निय्यत देखता
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तिरी तलाश से बाक़ी कोई मकाँ न रहा
हरम में दैर में बंदा कहाँ कहाँ न रहा
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बोसे लेते हैं चश्म-ए-जानाँ के
हम हिरन का शिकार करते हैं
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वहदहू-ला-शरीक की है क़सम
ऐ सनम तुम बुतों में यकता हो
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आगरा छूट गया 'मेहर' तो चुन्नार में भी
ढूँढा करती हैं वही कूचा-ओ-बाज़ार आँखें
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टैग : आगरा
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किस पर नहीं रही है इनायत हुज़ूर की
साहब नहीं मुझी पे तुम्हारा करम फ़क़त
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दीवाना हूँ पर काम में होशियार हूँ अपने
यूसुफ़ का ख़याल आया जो ज़िंदाँ नज़र आया
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शैख़ का'बे में ये दुआ माँगो
'मेहर' हो बुत-कदा हो दुनिया हो
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न ज़क़न है वो न लब हैं न वो पिस्ताँ न वो क़द
सेब ओ उन्नाब ओ अनार एक शजर से निकले
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है ये पूरब की ज़बान-दानी 'मेहर'
कहते हैं बात को हम सुनता हूँ
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यूँ अगर झगड़ा मोहब्बत का चुके तो ख़ूब है
हम ज़ियादा चाहें वो ऐ 'मेहर' कम चाहा करें
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दर-ब-दर मारा-फिरा मैं जुस्तुजू-ए-यार में
ज़ाहिद-ए-काबा हुआ रहबान-ए-बुत-ख़ाना हुआ
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टैग : जुस्तुजू
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बंध गई बाग़ में तेरी तो हवा बाद-ए-सबा
उन के कूचे में मिरी आह की बंध जाए हवा
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हम 'मेहर' मोहब्बत से बहुत तंग हैं अब तो
रोकेंगे तबीअत को जो रुक जाए तो अच्छा
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जन्नत की ने'मतों का मज़ा वाइ'ज़ों को हो
हम तो हैं महव लज़्ज़त-ए-बोस-ओ-कनार में
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क्या बुतों में है ख़ुदा जाने ब-क़ौल-ए-उस्ताद
न कमर रखते हैं काफ़िर न दहन रखते हैं
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गुल बाँग थी गुलों की हमारा तराना था
अपना भी इस चमन में कभी आशियाना था
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ऐ बुतों अल्लाह से ली है इजाज़त वस्ल की
कल हज़ारों देख डाले इस्तिख़ारे रात को
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आते हैं वो कहीं से तो ऐ 'मेहर' क़र्ज़ दाम
चिकनी डली इलाइची मँगा पान छालीया
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टैग : पान
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मजमा' में रक़ीबों के खुला था तिरा जूड़ा
कल रात अजब ख़्वाब-ए-परेशाँ नज़र आया
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तू ने वहदत को कर दिया कसरत
कभी तन्हा नज़र नहीं आता
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बे-क़रारी रोज़-ओ-शब करने लगा
'मेहर' अब तो दिल ग़ज़ब करने लगा
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करते हैं शौक़-ए-दीद में बातें हवा से हम
जाते हैं कू-ए-यार में पहले सबा से हम
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क्या तफ़रक़े हुआ जो हुए यार से अलग
दिल हम से और हम हैं दिल-ए-ज़ार से अलग
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न ले जा दैर से का'बा हमें ज़ाहिद कि हम वाँ भी
ख़ुदा को भूल जाते हैं बुतों को याद करते हैं
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सबा जो बड़ी बाग़ वाली हुई है
तुम्हारी गली की निकाली हुई है
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