हुमैरा राहत के शेर
बहुत ताख़ीर से पाया है ख़ुद को
मैं अपने सब्र का फल हो गई हूँ
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सुना है ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होते
सुना है इश्क़ ख़ता है सो कर के देखते हैं
ज़िक्र सुनती हूँ उजाले का बहुत
उस से कहना कि मिरे घर आए
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हुज़ूर आप कोई फ़ैसला करें तो सही
हैं सर झुके हुए दरबार भी लगा हुआ है
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तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है
न उस को भूलना है और न उस को याद करना है
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गुज़र जाएगी सारी रात इस में
मिरा क़िस्सा कहानी से बड़ा है
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मिरे दिल के अकेले घर में 'राहत'
उदासी जाने कब से रह रही है
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टैग : मायूसी
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जहाँ इक शख़्स भी मिलता नहीं है चाहने से
वहाँ ये दिल हथेली पर ज़माना चाहता है
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ये किस की याद की बारिश में भीगता है बदन
ये कैसा फूल सर-ए-शाख़-ए-जाँ खिला हुआ है
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टैग : याद
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बना कर एक घर दिल की ज़मीं पर उस की यादों का
कभी आबाद करना है कभी बर्बाद करना है
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जो मंज़िल तक जा के और कहीं मुड़ जाए
तुम ऐसे रस्ते के दुख से ना-वाक़िफ़ हो
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न हम से इश्क़ का मफ़्हूम पूछो
ये लफ़्ज़ अपने मआनी से बड़ा है
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वो इश्क़ को किस तरह समझ पाएगा जिस ने
सहरा से गले मिलते समुंदर नहीं देखा
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वो मुझ को आज़माता ही रहा है ज़िंदगी भर
मगर ये दिल अब उस को आज़माना चाहता है
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ख़ुशी मेरी गवारा थी न क़िस्मत को न दुनिया को
सो मैं कुछ ग़म बरा-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब उठा लाई
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उसे भी ज़िंदगी करनी पड़ेगी 'मीर' जैसी
सुख़न से गर कोई रिश्ता निभाना चाहता है
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कभी कभी तो जुदा बे-सबब भी होते हैं
सदा ज़माने की तक़्सीर थोड़ी होती है
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वो और थे कि जो ना-ख़ुश थे दो जहाँ ले कर
हमारे पास तो बस इक जहान था न रहा
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फ़साना अब कोई अंजाम पाना चाहता है
तअल्लुक़ टूटने को इक बहाना चाहता है
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