इदरीस आज़ाद के शेर
मैं तो इतना भी समझने से रहा हों क़ासिर
राह तकने के सिवा आँख का मक़्सद क्या है
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इतने ज़ालिम न बनो कुछ तो मुरव्वत सीखो
तुम पे मरते हैं तो क्या मार ही डालोगे हमें
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मैं अपने आप से रहता हूँ दूर ईद के दिन
इक अजनबी सा तकल्लुफ़ नए लिबास में है
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टैग : ईद
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दिल का दरवाज़ा खुला था कोई टिकता कैसे
जो भी आता था वो जाने के लिए आता था
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तिरी तारीफ़ करने लग गया हूँ
मोहब्बत ने दियानत छीन ली है
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मैं ने जितने भी लोग देखे हैं
सब के सीनों में रोग देखे हैं
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जब छोड़ गया था तो कहाँ छोड़ गया था
लौटा है तो लगता है कि अब छोड़ गया है
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नहीं नहीं मैं अकेला तो दिल-गिरफ़्ता न था
शजर भी बैठा था मुझ से कमर लगाए हुए
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वो शहर भर को फ़साने सुनाता फिरता है
हमारे सामने सच्चा बने तो बात बने
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मैं ख़ुद उदास खड़ा था कटे दरख़्त के पास
परिंदा उड़ के मिरे हाथ पर उतर आया
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कौन काफ़िर है जो खेलेगा दियानत से यहाँ
जब मिरी जीत है वाबस्ता तिरी हार के साथ
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तुम ने तारों को रहनुमा जाना
हम ने तारों की रहनुमाई की
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मैं जिस में दफ़्न हूँ इक चलती फिरती क़ब्र है ये
जनम नहीं था वो दर-अस्ल मर गया था मैं
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जहाँ तस्वीर बनवाने की ख़ातिर लोग आते थे
वहाँ पस-मंज़र-ए-तस्वीर जो दीवार थी मैं था
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बजता रहता है मुसलसल किसी बरबत की तरह
किस की दस्तक पे लगा है मिरा दरवाज़ा-ए-दिल
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टूटी निशस्त-ए-दिल तो मोहब्बत की आबरू
वापस उसी मक़ाम पे लाई न जा सकी
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खींच लाती है समुंदर से जज़ीरे सर-ए-आब
जब मिरी आँख को मंज़र की तमन्ना हो जाए
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वो शौक़-ए-रब्त-ए-नौ में खड़ी झूलती रही
मैं शाख़-ए-ए'तिबार से फल की तरह गिरा
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तिरी रू-नुमाई की रात भी मैं जहाँ खड़ा था खड़ा रहा
कि हुजूम-ए-शहर को चीर कर मुझे रास्ता नहीं चाहिए
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