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इफ़्तिख़ार हैदर

1975 | लाहौर, पाकिस्तान

इफ़्तिख़ार हैदर के शेर

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तिरे बग़ैर गुज़ारा नहीं किसी सूरत

उसे ये बात बताने से बात बिगड़ी है

शाम होते ही तेरे हिज्र का दुख

दिल में ख़ेमा लगा के बैठ गया

अपने लहजे पे ग़ौर कर के बता

लफ़्ज़ कितने हैं तीर कितने हैं

शहर में थी ना-साज़ तबीअत बेटे की

गाँव में बैठी माँ ने खाना छोड़ दिया

तेरे क़दमों में के गिरना है

जिस बुलंदी पे भी उछाल मुझे

हम ज़माना-शनास थे फिर भी

दास्ताँ-गो पे ए'तिबार किया

मीर के कुछ अशआ'र मिला कर राशिद की कुछ नज़्मों में

वहशत की आमेज़िश कर के इक उस्लूब बनाना है

बे-ख़ता है तू फिर भी डर दोस्त

बे-ख़ता ही धर लिया जाए

सीटी की आवाज़ सुनी और सारा माज़ी लौट आया

पस-मंज़र में रेल नहीं है पूरा एक अफ़्साना है

तब मिरी आस टूट जाती है

जब मिरी आस लोग होते हैं

जितनी फ़ुर्सत है ज़िंदगी में नसीब

उतनी फ़ुर्सत में मैं से तू हो जा

ये जो तुम मौत से डराते हो

ज़िंदगी सब का मसअला नहीं है

अजीब दर्द सा उस लम्हा-ए-विसाल में था

कि ज़ख़्म से भी बड़ा कर्ब इंदिमाल में था

उमीदें बाँध रक्खी हैं तिरे लुत्फ़-ओ-करम से

सियह-आ'माल हूँ तो गोश्वारा कौन देखे

बिजली गई तो वो भी हमारे मकान की

बिजली गिरी तो वो भी हमारे मकान पर

साँस ताज़ा हवा के चक्कर में

सारा गर्द-ओ-ग़ुबार खींचती है

सौ तरह के वबाल हैं लेकिन

फिर भी ज़िंदा हैं आन-बान के साथ

ऐसों वैसों के क़सीदे नहीं लिक्खे जाते

शे'र लिख लेता हूँ सेहरे नहीं लिक्खे जाते

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