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इज्तिबा रिज़वी

1908 - 1991 | छपरा, भारत

इज्तिबा रिज़वी

ग़ज़ल 33

नज़्म 4

 

अशआर 52

अफ़्सुर्दगी भी हुस्न है ताबिंदगी भी हुस्न

हम को ख़िज़ाँ ने तुम को सँवारा बहार ने

ज़बाँ से दिल का फ़साना अदा किया गया

ये तर्जुमाँ तो बनी थी मगर बना गया

हज़ार आरज़ू हो तुम यक़ीं हो तुम गुमाँ हो तुम

क़फ़स-नसीब रूह की उमीद-ए-आशियाँ हो तुम

मिरे साज़-ए-नफ़स की ख़ामुशी पर रूह कहती है

आई मुझ को नींद और सो गया अफ़्साना-ख़्वाँ मेरा

फ़ित्ने जगा के दहर में आग लगा के शहर में

जा के अलग खड़े हुए कहने लगे कि हम नहीं

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इक अख़्गर-ए-जमाल फ़रोज़ाँ ब-शक्ल-ए-दिल

ख़िरद को ख़ाना-ए-दिल का निगह-बाँ कर दिया हम ने

चुराने को चुरा लाया मैं जल्वे रू-ए-रौशन से

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