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Imtiyaz Ahmad Qamar's Photo'

इम्तियाज़ अहमद क़मर

1944 - 1993 | दरभंगा, भारत

इम्तियाज़ अहमद क़मर के शेर

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हमारे गाँव से बारिश ख़ुलूस की ले जा

कि तेरे शहर का सब कुछ अलाव पर होगा

कोशिशें इक हमें मिटाने की

रस्म सी बन गई ज़माने की

उस ने हाथों की लकीरों से बग़ावत की थी

अब जहाँ होगा मिरी तरह वो तन्हा होगा

हम ने ख़ुद भर दिया पैमाने में अपना ही लहू

जब भी मयख़ाने की तौक़ीर पे आँच आई है

जब शहर में दुश्मन मिरा कोई भी नहीं था

फिर कौन ये ख़ंजर की ज़बाँ बोल रहा है

मजबूर का शिकवा क्या मजबूर की आहें क्या

ये आप की दुनिया है बस आप की चलती है

सारे माहौल की रग रग में नशा दौड़ गया

मय की बरसात है या आप की अंगड़ाई है

यूँ तो क़दम क़दम पे ख़ुदा सैंकड़ों मिले

बंदा मिल सका कोई बंदों के शहर में

ज़ब्त-ए-ग़म का मिरे अंदाज़ा भला क्या होता

मैं अगर दश्त होता भी तो दरिया होता

जब डूब गई कश्ती ये राज़ खुला हम पर

दरिया के तलातुम में रू-पोश किनारे थे

ग़म-गुसारी प्यार हमदर्दी वफ़ा

ये दुकानें शहर के बाहर लगा

फिर कोई ख़ंजर चलाए फिर कोई खींचे कमाँ

रफ़्ता रफ़्ता दिल का हर इक ज़ख़्म भरता जाए है

मैं ही क्या सच बोलता था शहर में

क्यों मुझे ही के ये पत्थर लगा

उस 'क़मर' को है ख़ुद अब अपने ही चेहरे की तलाश

जिस को दुनिया ने कहा आज का ज्ञानी है यही

मिरे ही हिस्से में अज़्मत सलीब-ओ-दार की थी

मुझे ही अहद का अपने रसूल होना था

बर्ग-ए-आवारा को अब अपना पता याद नहीं

क्या हुआ तेज़ हवाओं की पज़ीराई में

रुख़्सत-ए-चश्म-ए-तमाशा का है मातम वर्ना

इक ख़लिश पहलू में रहती थी जहाँ आज भी है

जल-बुझी होगी कोई आग किसी दिन उस में

बे-सबब ही तो नहीं दाग़ 'क़मर' में आया

दूर हम कर सके कोर-निगाही अपनी

वो था पहले भी क़रीब-ए-रग-ए-जाँ आज भी है

एक शीशे के मुक़ाबिल थे हज़ारों पत्थर

टूट कर मेरे बिखरने की कहानी है यही

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