इनाम नदीम के शेर
ये मोहब्बत भी एक नेकी है
इस को दरिया में डाल आते हैं
पुकारते थे मुझे आसमाँ मगर मैं ने
क़याम करने को ये ख़ाक-दाँ पसंद किया
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एक लम्हा लौट कर आया नहीं
ये बरस भी राएगाँ रुख़्सत हुआ
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नींद से जागा हूँ तो बैठा सोचता हूँ
ख़्वाब में उस को पाया था या साया था
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दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो
अंदर से कभी देखो कैसा नज़र आता है
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टैग : दरिया
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बुझ जाएगा इक रोज़ तिरी याद का शोला
लेकिन मिरे सीने में धुआँ यूँ ही रहेगा
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अपनी ही रवानी में बहता नज़र आता है
ये शहर बुलंदी से दरिया नज़र आता है
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जिए गरचे इसी दुनिया में हम भी
मगर दुनिया हमारी और ही थी
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जो तेरी आरज़ू मुझ को न होती
तो कोई दूसरा आज़ार होता
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ज़माना है बुरे हम-साए जैसा
सो हम-साए से झगड़ा कर चुके हैं
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ख़ामोश खड़ा हूँ मैं दर-ए-ख़्वाब से बाहर
क्या जानिए कब तक इसी हालत में रहूँगा
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हम ठहरे रहेंगे किसी ताबीर को थामे
आँखों में कोई ख़्वाब रवाँ यूँ ही रहेगा
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वो दिल जिस ने हमें रुस्वा किया था
हम आज उस दिल को रुस्वा कर चुके हैं
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कुछ रोज़ अभी और है ये आइना-ख़ाना
कुछ रोज़ अभी और मैं हैरत में रहूँगा
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कभी लौट आया मैं दश्त से तो ये शहर भी
उसी गर्द में था अटा हुआ मिरे सामने
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जिस रोज़ तिरे हिज्र से फ़ुर्सत में रहूँगा
मालूम नहीं कौन सी वहशत में रहूँगा
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