इंद्र सराज़ी के शेर
दुख उदासी मलाल ग़म के सिवा
और भी है कोई मकान में क्या
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जिस का डर था वही हुआ यारो
वो फ़क़त हम से ही ख़फ़ा निकला
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बड़ी मुश्किल से बहलाया था ख़ुद को
अचानक याद तेरी आ गई फिर
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छोड़ के मुझ को क्या गया वो शख़्स
तब से सब कुछ ही लुट गया मेरा
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क्या ख़बर क्या ख़ता मिरी थी कि जो
मुझ से रूठा रहा ख़ुदा मेरा
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जो मिला तोड़ता गया उस को
दिल लगा था मिरा हज़ारों से
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कुछ हवा का भी हाथ था वर्ना
पर्दा यूँ ही हिला नहीं होता
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और तो कोई था नहीं शायद
रात को उठ के मैं ही चीख़ा था
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राज़-दाँ होते हैं वो घर अक्सर
जिन घरों में धुआँ नहीं होता
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अब किसी काम के नहीं ये रहे
दिल वफ़ा इश्क़ और तन्हाई
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दिल के ख़ूँ से भी सींच कर देखा
पेड़ क्यूँ ये हरा नहीं होता
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क्या ख़बर कब बरस के टूट पड़े
हर तरफ़ ऐसी है घटा छाई
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सदा हर बार दोहराया गया हूँ
मैं नग़्मे की तरह गाया गया हूँ
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बस वही मेरी आख़िरी शब थी
चाँद जिस रात मुझ से रूठा था
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कोई तोहफ़ा न हार चाहता हूँ
मैं फ़क़त तेरा प्यार चाहता हूँ
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ख़्वाहिशें भी ज़रूरी हैं लेकिन
ज़िंदगी ख़्वाहिशों की दुश्मन है
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आख़िरी उम्र तक रहेगी याद
रात मैं साथ जिस के भीगा था
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अभी तो मौसम-ए-ख़िज़ाँ है ये
खिलेंगे फूल भी बहार के साथ
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अना रहती थी पहले-पह्ल लेकिन
हमारे दरमियाँ अब कुछ नहीं है
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फ़क़त चंद रुस्वाइयों के सिवा और
तिरे शहर में मेरी क्या आबरू है
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हमारे दरमियाँ अब कुछ नहीं है
मगर फिर भी छुपाना चाहता हूँ
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लोग अक्सर यही बताते हैं
मैं जहाँ हूँ वहाँ नहीं होता
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