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इंद्र सराज़ी

1990 | डोडा, भारत

इंद्र सराज़ी के शेर

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दुख उदासी मलाल ग़म के सिवा

और भी है कोई मकान में क्या

बड़ी मुश्किल से बहलाया था ख़ुद को

अचानक याद तेरी गई फिर

जिस का डर था वही हुआ यारो

वो फ़क़त हम से ही ख़फ़ा निकला

सावन की इस रिम-झिम में

भीग रहा है तन्हा चाँद

कितना प्यारा लगता है

होता है जब पूरा चाँद

छोड़ के मुझ को क्या गया वो शख़्स

तब से सब कुछ ही लुट गया मेरा

अब किसी काम के नहीं ये रहे

दिल वफ़ा इश्क़ और तन्हाई

इक अजब शोर बपा है अंदर

फिर से दिल टूट रहा है शायद

और तो कोई था नहीं शायद

रात को उठ के मैं ही चीख़ा था

जो मिला तोड़ता गया उस को

दिल लगा था मिरा हज़ारों से

क्या ख़बर क्या ख़ता मिरी थी कि जो

मुझ से रूठा रहा ख़ुदा मेरा

राज़-दाँ होते हैं वो घर अक्सर

जिन घरों में धुआँ नहीं होता

कुछ हवा का भी हाथ था वर्ना

पर्दा यूँ ही हिला नहीं होता

दिल के ख़ूँ से भी सींच कर देखा

पेड़ क्यूँ ये हरा नहीं होता

क्या ख़बर कब बरस के टूट पड़े

हर तरफ़ ऐसी है घटा छाई

सदा हर बार दोहराया गया हूँ

मैं नग़्मे की तरह गाया गया हूँ

ख़ूब थी अब मगर बदल सी गई

तेरे इस शहर की ये तन्हाई

हमारे दरमियाँ अब कुछ नहीं है

मगर फिर भी छुपाना चाहता हूँ

बस वही मेरी आख़िरी शब थी

चाँद जिस रात मुझ से रूठा था

कोई तोहफ़ा हार चाहता हूँ

मैं फ़क़त तेरा प्यार चाहता हूँ

अभी तो मौसम-ए-ख़िज़ाँ है ये

खिलेंगे फूल भी बहार के साथ

आख़िरी उम्र तक रहेगी याद

रात मैं साथ जिस के भीगा था

ख़्वाहिशें भी ज़रूरी हैं लेकिन

ज़िंदगी ख़्वाहिशों की दुश्मन है

अना रहती थी पहले-पह्ल लेकिन

हमारे दरमियाँ अब कुछ नहीं है

फ़क़त चंद रुस्वाइयों के सिवा और

तिरे शहर में मेरी क्या आबरू है

लोग अक्सर यही बताते हैं

मैं जहाँ हूँ वहाँ नहीं होता

वो मज़ा अब कहाँ रहा यारो

लिया था जो मज़ा जवानी में

आँखें मलता रोता चाँद

देखो फिर से निकला चाँद

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