इक़बाल कैफ़ी के शेर
गुहर समझा था लेकिन संग निकला
किसी का ज़र्फ़ कितना तंग निकला
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अम्न 'कैफ़ी' हो नहीं सकता कभी
जब तलक ज़ुल्म-ओ-सितम मौजूद है
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देखा है मोहब्बत को इबादत की नज़र से
नफ़रत के अवामिल हमें मायूब रहे हैं
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ख़िज़ाँ का दौर भी आता है एक दिन 'कैफ़ी'
सदा-बहार कहाँ तक दरख़्त रहते हैं
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मोहब्बतों को भी उस ने ख़ता क़रार दिया
मगर ये जुर्म हमें बार बार करना है
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फूलों का तबस्सुम भी वो पहला सा नहीं है
गुलशन में भी चलती है हवा और तरह की
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यही नहीं कि निगाहों को अश्क-बार किया
तिरे फ़िराक़ में दामन भी तार तार किया
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अटे हुए हैं फ़क़ीरों के पैरहन 'कैफ़ी'
जहाँ ने भीक में मिट्टी बिखेर कर दी है
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मैं ऐसे हुस्न-ए-ज़न को ख़ुदा मानता नहीं
आहों के एहतिजाज से जो मावरा रहे
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ग़ज़ल के रंग में मल्बूस हो कर
रुबाब-ए-दर्द से आहंग निकला
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अफ़सोस माबदों में ख़ुदा बेचते हैं लोग
अब मअनी-ए-सज़ा-ओ-जज़ा कुछ नहीं रहा
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