इक़बाल सुहैल के शेर
न रहा कोई तार दामन में
अब नहीं हाजत-ए-रफ़ू मुझ को
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जो तसव्वुर से मावरा न हुआ
वो तो बंदा हुआ ख़ुदा न हुआ
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आशोब-ए-इज़्तिराब में खटका जो है तो ये
ग़म तेरा मिल न जाए ग़म-ए-रोज़गार में
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वो शबनम का सुकूँ हो या कि परवाने की बेताबी
अगर उड़ने की धुन होगी तो होंगे बाल-ओ-पर पैदा
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कुछ ऐसा है फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना बरसों से
कि सब भूले हुए हैं काबा ओ बुत-ख़ाना बरसों से
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हुस्न-ए-फ़ितरत की आबरू मुझ से
आब ओ गिल में है रंग-ओ-बू मुझ से
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ख़ाकिस्तर-ए-दिल में तो न था एक शरर भी
बेकार उसे बर्बाद किया मौज-ए-सबा ने
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काफ़ी है बहुत वुसअ'त-ए-सहरा-ए-ज़माना
हम और कहीं ढूँड निकालेंगे ठिकाना
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