इरशाद ख़ान सिकंदर के शेर
खींच लाई है मोहब्बत तिरे दर पर मुझ को
इतनी आसानी से वर्ना किसे हासिल हुआ मैं
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बूढ़ी माँ का शायद लौट आया बचपन
गुड़ियों का अम्बार लगा कर बैठ गई
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कल तेरी तस्वीर मुकम्मल की मैं ने
फ़ौरन उस पर तितली आ कर बैठ गई
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रिश्ता बहाल काश फिर उस की गली से हो
जी चाहता है इश्क़ दोबारा उसी से हो
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हमीं तुम से हमेशा मिलने आएँ क्यूँ
तुम्हारे पाँव में मेहंदी लगी है क्या
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मुद्दतों आँखें वज़ू करती रहीं अश्कों से
तब कहीं जा के तिरी दीद के क़ाबिल हुआ मैं
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मिरे ख़िलाफ़ सभी साज़िशें रचीं जिस ने
वो रो रहा है मिरी दास्ताँ सुनाता हुआ
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कर गया ख़मोश मुझ को देर तक
चीख़ना वो एक बे-ज़बान का
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ज़माने पर तो खुल कर हँस रहा था
तिरे छूते ही रो बैठा है पागल
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अब अपने-आप को ख़ुद ढूँढता हूँ
तुम्हारी खोज में निकला हुआ मैं
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काम सब हो गए मिरे आसाँ
कौन समझेगा मेरी मुश्किल को
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बह गए आँसुओं के दरिया में
आप की बात याद ही न रही
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क्या किसी का लम्स फिर इंसाँ बनाएगा मुझे
उस के जाते ही समूचा जिस्म पत्थर हो गया
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ख़्वाब क्या उस का बुना मैं रूह तक तर हो गया
एक क़तरा इस क़दर फैला समुंदर हो गया
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