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JaiKrishn Chaudhry Habeeb's Photo'

जयकृष्ण चौधरी हबीब

1904 | जबलपुर, भारत

उर्दू कवि, फ़ारसी और संस्कृत के विद्वान, स्वतंत्रता संग्राम में शामिल रहे

उर्दू कवि, फ़ारसी और संस्कृत के विद्वान, स्वतंत्रता संग्राम में शामिल रहे

जयकृष्ण चौधरी हबीब के शेर

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पा के इक तेरा तबस्सुम मुस्कुराई काएनात

झूम उट्ठा वो भी दिल जीने से जो बेज़ार था

निकहत वही सुरूर वही दिल-कशी वही

आमद ये आप की है कि झोंका बहार का

या गुफ़्तुगू हो उन लब-ओ-रुख़्सार-ओ-ज़ुल्फ़ की

या उन ख़मोश नज़रों के लुत्फ़-ए-सुख़न की बात

इस सीना-ए-वीराँ में खिलाए कभी फूल

क्यों बाग़ पे इतराती रही बाद-ए-सबा है

इंसाँ के दिल की ख़ैर ज़मीं आसमाँ की ख़ैर

हर रोज़ गुल खिलाते हैं इंसाँ नए नए

इस क़दर वा'दे का अंदाज़ हसीं होता है

कि तिरे झूट पे भी सच का यक़ीं होता है

हर इक क़दम पे ज़िंदगी है इंतिज़ार में

कितने ही मोड़ उभरेंगे हर इक सफ़र के साथ

जुनूँ ही साथ रहे ज़िंदगी में मेरे 'हबीब'

सफ़र में और कोई हम-सफ़र मिले मिले

दिल टूट के ही आख़िर बनता है किसी क़ाबिल

तख़रीब के पर्दे में ता'मीर नज़र आई

तेरी यादों का ही सरमाया लिए बैठे हैं

हम कभी बे-सर-ओ-सामान होने पाए

टूट जाते हैं जो दुनिया के सहारे सारे

पर्दा-ए-ग़ैब से होता है सहारा पैदा

बिछड़े मुझ से इस तरह वो ज़िंदगी के हम-सफ़र

बुझ गए हों जलते जलते जैसे रस्ते के चराग़

उम्र अपनी तो इसी तौर से गुज़री है 'हबीब'

रहा तूफ़ाँ ही निगाहों में किनारा रहा

जिगर के दाग़ दिखाने से फ़ाएदा क्या है

अभी ज़माने के हालात साज़गार नहीं

तमन्ना है तिरी और वो दर्द तपिश

दिल के मरने का मुझे अब तो यक़ीं होता है

सह लूँगा 'हबीब' सितम-हा-ए-रोज़गार

हासिल अगर हो दोस्त की प्यारी नज़र मुझे

ख़याल-ए-यार के रौशन दिए करो वर्ना

अँधेरी रात में मंज़िल का ए'तिबार नहीं

हाल-ए-दिल पर हँसा कभी रोया

यूँ मिरी उम्र बे-सबात गई

हवस ने हुस्न की ऐसी बिगाड़ दी सूरत

'हबीब' कौन है जो उस को आज पहचाने

हाल-ए-दिल कहते ही जाती है जब याद उन की

हम कहीं होते हैं अफ़्साना कहीं होता है

उन के होंटों पर आया तबस्सुम उधर

नब्ज़-ए-आलम अधर तेज़-तर हो गई

हैं सब ये तिरे शिकवे कोताही-ए-उल्फ़त से

कुछ दिल की तड़प कम है कुछ ख़ाम तमन्ना है

मुझे ही देख कि जीता हूँ तेरे वा'दों पर

ये कौन कहता है वा'दों पे ए'तिबार नहीं

जहाँ कहीं भी कोई दिल-फ़िगार होता है

वहीं पे साया-ए-परवरदिगार होता है

अक़्ल-ए-इंसाँ ने बिठा रक्खे हैं पहरे दिल पर

दिल की क्या बात कहेगा जो दीवाना बने

जिस पे इक बार जले हैं तिरे क़दमों के चराग़

रास्ते वो कभी सुनसान होने पाए

दोनों हाथों से मसर्रत को लुटाया है 'हबीब'

ग़म की दौलत तो मगर तुम से लुटाई गई

भेस में मसर्रत के ग़म कहीं आया हो

इस सबब से डर डर कर हम ख़ुशी से मिलते हैं

अंदाज़ मुक़द्दर के हैं गेसू-ए-जानाँ से

जो गाह उलझते हैं और गाह सँवरते हैं

छोड़ आते हैं हर जानिब कुछ नक़्श-ए-वफ़ा अपने

हम ज़ीस्त की राहों से जिस वक़्त गुज़रते हैं

दिल-कशी तेरे तसव्वुर की रही रोज़-अफ़्ज़ूँ

बाहमी रब्त का हर चंद वो नक़्शा रहा

अपना ये चराग़-ए-दिल मद्धम ही सही लेकिन

दुनिया के अँधेरों से तन्हा ही ये लड़ता है

इस दर्जा कभी जाज़िब ये दुनिया थी पहले

ये किस के तसव्वुर में तस्वीर नज़र आई

मानूस इस क़दर हूँ मैं लज़्ज़त से दर्द की

दिल है कि ढूँड लेता है पैकाँ नए नए

उन से हँसते ही हँसते मोहब्बत सी शय

होने वाली कहीं थी मगर हो गई

इस आलम-ए-फ़ानी में सदा कौन रहा है

इक नाम है अल्लाह का इक नक़्श-ए-वफ़ा है

जब थके हाथों से पतवार भी गिर जाते हैं

ऐन गिर्दाब में होता है किनारा पैदा

याद-ए-हज़ीं नुक़ूश-ए-करम और निगाह-ए-चंद

क्या बाँधा हम ने रख़्त-ए-सफ़र कुछ पूछिए

'हबीब' ख़ुद ही बनाएँगे रोज़-ओ-शब अपने

हुआ ही क्या जो ज़माने ने साथ छोड़ दिया

मक़्तल तो होंगे आज भी मंसूर हैं कहाँ

अब ज़ेब-ए-दास्तान है दार-ओ-रसन कहाँ

अपनी ज़िंदगानी के तुंद-ओ-तेज़-रौ धारे

कुछ मिज़ाज-ए-दिलबर की बरहमी से मिलते हैं

इंसाँ के दर्द-ओ-ग़म का कहीं ज़िक्र ही नहीं

है बात शैख़ की तो कभी बरहमन की बात

इस तरह बे-कैफ़ गुज़रा 'हबीब' अपना शबाब

जिस तरह से सूने घर में जलता है कोई चराग़

वो नाला जो सीने से आया कभी लब तक

हंगामों में दुनिया के उसे तू ने सुना है

नालाँ हूँ अपने ज़ौक़-ए-नज़र से 'हबीब' क्यों

क्या सह रहे हैं क़ल्ब-ओ-जिगर कुछ पूछिए

जहाँ हसीं है मोहब्बत की दिल-नवाज़ी से

मगर ये राज़ कोई ख़ाल-ख़ाल ही जाने

किसी के जलवोें से मा'मूर है जहाँ अपना

नहीं ये फ़िक्र कि दुनिया ने साथ छोड़ दिया

बेदाद-ए-मुक़द्दर से दिल मेरा उलझता है

जब आप नज़र मुझ पर कुछ लुत्फ़ से करते हैं

गुल ही कभी तो मुंतख़ब-ए-रोज़गार था

ख़ारों पे अब तो आया है मौसम बहार का

शब-ए-ग़म का 'हबीब' शिकवा क्यों

देख वो पौ फटी वो रात आई

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