कबीर अजमल के शेर
उफ़ुक़ के आख़िरी मंज़र में जगमगाऊँ मैं
हिसार-ए-ज़ात से निकलूँ तो ख़ुद को पाऊँ मैं
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कुछ तअल्लुक़ भी नहीं रस्म-ए-जहाँ से आगे
उस से रिश्ता भी रहा वहम ओ गुमाँ से आगे
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ज़मीर ओ ज़ेहन में इक सर्द जंग जारी है
किसे शिकस्त दूँ और किस पे फ़त्ह पाऊँ मैं
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ये ग़म मिरा है तो फिर ग़ैर से इलाक़ा क्या
मुझे ही अपनी तमन्ना का बार ढोने दे
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मैं बुझ गया तो कौन उजालेगा तेरा रूप
ज़िंदा हूँ इस ख़याल में मरता हुआ सा मैं
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कोई सदा कोई आवाज़ा-ए-जरस ही सही
कोई बहाना कि हम जाँ निसार करते रहें
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टैग : बहाना
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'अजमल' सफ़र में साथ रहीं यूँ सऊबतें
जैसे कि हर सज़ा का सज़ा-वार मैं ही था
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किस से मैं उन का ठिकाना पूछता
सामने ख़ाली मकाँ था और मैं
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लहू रिश्तों का अब जमने लगा है
कोई सैलाब मेरे घर भी आए
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ज़िंदा कोई कहाँ था कि सदक़ा उतारता
आख़िर तमाम शहर ही ख़ाशाक हो गया
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कहते हैं कि उठने को है अब रस्म-ए-मोहब्बत
और इस के सिवा कोई तमाशा भी नहीं है
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उसी के होंटों के फूल बाब-ए-क़ुबूल चूमें
सो हम उठा लाएँ अब के हर्फ़-ए-दुआ उसी का
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यूँ ख़ुश न हो ऐ शहर-ए-निगाराँ के दर ओ बाम
ये वादी-ए-सफ़्फ़ाक भी रहने की नहीं है
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वो मेरे ख़्वाब चुरा कर भी ख़ुश नहीं 'अजमल'
वो एक ख़्वाब लहू में जो फैल जाना था
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क्यूँ बाम पे आवाज़ों का धम्माल है 'अजमल'
इस घर पे तो आसेब का साया भी नहीं है
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बजाए गुल मुझे तोहफ़ा दिया बबूलों का
मैं मुन्हरिफ़ तो नहीं था तिरे उसूलों का
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