क़ौसर जायसी के शेर
कभी कभी सफ़र-ए-ज़िंदगी से रूठ के हम
तिरे ख़याल के साए में बैठ जाते हैं
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ग़म नैरंग दिखाता है हस्ती की जल्वा-नुमाई का
कितने ज़मानों का हासिल है इक लम्हा तन्हाई का
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ये आरज़ू के सितारे ये इंतिज़ार के फूल
चमक रही हैं ख़ताएँ महक रहे हैं गुनाह
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अपने ग़म की फ़िक्र न की इस दुनिया की ग़म-ख़्वारी में
बरसों हम ने दस्त-ए-जुनूँ से काम लिया दानाई का
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तख़्लीक़ के पर्दे में सितम टूट रहे हैं
आज़र ही के हाथों से सनम टूट रहे हैं
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थी नज़र के सामने कुछ तो तलाफ़ी की उमीद
खेत सूखा था मगर दरिया में तुग़्यानी तो थी
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आओ हम हँसते उठें बज़्म-ए-दिल-आज़ाराँ से
कौन एहसास को बीमार बना कर उट्ठे
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वो अर्ज़-ए-ग़म पे मिरी उन का एहतिमाम-ए-सुकूत
तमाम शोरिश-ए-तफ़्सील-ए-वाक़िआत गई
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ख़्वाब देखा था कहाँ चमकी है ताबीर कहाँ
हश्र का दिन मिरी फ़ितरत का उजाला निकला
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छलक उठा जो कभी ख़ून-ए-आरज़ू मेरा
मिज़ा मिज़ा तिरी रानाइयों की बात गई
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