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ख़ालिद हसन क़ादिरी

1927 - 2012 | लंदन, यूनाइटेड किंगडम

ख़ालिद हसन क़ादिरी के शेर

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ये वक़्फ़ा साअ'तों का चंद सदियों के बराबर है

वो अब आवाज़ देते हैं तो पहचानी नहीं जाती

घुटन तो दिल की रही क़स्र-ए-मरमरीं में भी

रौशनी से हुआ कुछ कुछ हवा से हुआ

मिरी जाँ तेरी ख़ातिर जाँ का सौदा

बहुत महँगा भी है दुश्वार भी है

वो कहाँ और हर्फ़-ए-तल्ख़ कहाँ

तुम ने की होगी इश्तिआ'ल की बात

आदमी हैं चंद-दिन में मर रहेंगे देखना

हम हज़ारों साल दुनिया में रहें पत्थर नहीं

मुश्किल इंकार हुस्न को हो मगर

सख़्त है इश्क़ पर सवाल की बात

हिज्र की बात या विसाल की बात

दिल ने फिर की तिरे मलाल की

मर मिटे अहल-ए-हाल लब खुले

हर्फ़-ए-मंसूर सिर्फ़ क़ाल की बात

बहुत हैं सज्दा-गाहें पर दर-ए-जानाँ नहीं मिलता

हज़ारों देवता हैं हर तरफ़ इंसाँ नहीं मिलता

आए तुम आओ तुम कि अब आने से क्या हासिल

ख़ुद अब तो हम से अपनी शक्ल पहचानी नहीं जाती

मेराज-ए-कमाल-ए-क़ुद्दूसी, आग़ाज़-ए-शुऊर-ए-इंसाँ है

क्या कोई हक़ीक़त-ए-तजरीदी, अल्फ़ाज़ में भी महसूर हुई?

तुम्हारे नाम पे दिल अब भी रुक सा जाता है

ये बात वो है कि इस से मफ़र नहीं होता

सदा-ए-शहर फ़ुसूँ है नज़र दर से हटा

वो मिस्ल-ए-संग हुआ जिस ने लौट कर देखा

किस से पूछें कि हम किधर जाएँ

याद अब हम को वो गली ही नहीं

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