ख़ावर एजाज़ के शेर
मुझे इस ख़्वाब ने इक अर्से तक बे-ताब रक्खा है
इक ऊँची छत है और छत पर कोई महताब रक्खा है
हाथ लगाते ही मिट्टी का ढेर हुए
कैसे कैसे रंग भरे थे ख़्वाबों में
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मिरे सेहन पर खुला आसमान रहे कि मैं
उसे धूप छाँव में बाँटना नहीं चाहता
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जहाँ तुम हो वहाँ से दूर पड़ती है ज़मीं मेरी
जहाँ मैं हूँ वहाँ से आसमाँ नज़दीक पड़ता है
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इक अर्से बाद हुई खुल के गुफ़्तुगू उस से
इक अर्से बाद वो काँटा चुभा हुआ निकला
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ज़वाल-ए-अहद तो शायद मुझे न पहचाने
मैं इक हवाला हूँ और कर्बला से आया हूँ
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सुना रही है जिसे जोड़ जोड़ कर दुनिया
तमाम टुकड़े हैं वो मेरी दास्तान के ही
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ये दिल हद से गुज़रना चाहता था
मगर मजबूर हो कर रह गया है
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उफ़ुक़ पर डूबने वाला सितारा
कई इम्कान रौशन कर गया है
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मिरे और उस के बीच इक धुँद सी मौजूद रहती है
ये दुनिया आ रही है मेरे उस के दरमियाँ शायद
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ये दिल ये शहर-ए-वफ़ा कब उसे पसंद आया
वो बे-क़रार था उस को यहाँ से जाना था
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बदल लिया है ज़रा ख़्वाब के इलाक़े को
मकाँ को छोड़ के अब ला-मकाँ में रहता हूँ
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मकाँ नज़दीक है या ला-मकाँ नज़दीक पड़ता है
कहीं आ जाओ मुझ को हर जहाँ नज़दीक पड़ता है
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