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लियाक़त अली आसिम

1951 - 2019 | कराची, पाकिस्तान

मशहूर पाकिस्तानी शायर और माहिर-ए-लेसानियात, पाकिस्तान उर्दू लुग़त बोर्ड से वाबस्ता रहे

मशहूर पाकिस्तानी शायर और माहिर-ए-लेसानियात, पाकिस्तान उर्दू लुग़त बोर्ड से वाबस्ता रहे

लियाक़त अली आसिम के शेर

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हम ने तुझे देखा नहीं क्या ईद मनाएँ

जिस ने तुझे देखा हो उसे ईद मुबारक

ज़रा सा साथ दो ग़म के सफ़र में

ज़रा सा मुस्कुरा दो थक गया हूँ

ज़मानों बा'द मिले हैं तो कैसे मुँह फेरूँ

मिरे लिए तो पुरानी शराब हैं मिरे दोस्त

शाम के साए में जैसे पेड़ का साया मिले

मेरे मिटने का तमाशा देखने की चीज़ थी

मुझे मनाओ नहीं मेरा मसअला समझो

ख़फ़ा नहीं मैं परेशान हूँ ज़माने से

गुज़िश्ता साल कोई मस्लहत रही होगी

गुज़िश्ता साल के सुख अब के साल दे मौला

वो जो आँसुओं की ज़बान थी मुझे पी गई

वो जो बेबसी के कलाम थे मुझे खा गए

कभी ये ग़लत कभी वो ग़लत कभी सब ग़लत

ये ख़याल-ए-पुख़्ता जो ख़ाम थे मुझे खा गए

मुझे मनाओ नहीं मेरा मसअला समझो

ख़फ़ा नहीं मैं परेशान हूँ ज़माने से

बहुत ज़ख़ीम किताबों से चुन के लाया हूँ

इन्हें पढ़ो वरक़-ए-इंतिख़ाब हैं मिरे दोस्त

बहुत रोई हुई लगती हैं आँखें

मिरी ख़ातिर ज़रा काजल लगा लो

मनाना ही ज़रूरी है तो फिर तुम

हमें सब से ख़फ़ा हो कर मना लो

मिरी जानिब अब बढ़ना मोहब्बत

मैं अब पहले से मुश्किल रास्ता हूँ

इस सफ़र से कोई लौटा नहीं किस से पूछें

कैसी मंज़िल है जहान-ए-गुज़राँ से आगे

क़यामत तक रहेगी रूह आबाद

मोहब्बत है तो हम ज़िंदा रहेंगे

मेरी रातें भी सियह दिन भी अँधेरे मेरे

रंग ये मेरे मुक़द्दर में कहाँ से आया

बेबसी का ज़हर सीने में उतर जाता है क्या

मैं जिसे आवाज़ देता हूँ वो मर जाता है क्या

कहाँ तक एक ही तमसील देखूँ

बस अब पर्दा गिरा दो थक गया हूँ

'आसिम' वो कोई दोस्त नहीं था जो ठेरता

दुनिया थी अपने काम से आगे निकल गई

वर्ना सुक़रात मर गया होता

उस पियाले में ज़हर था ही नहीं

मुझे दोराहे पे लाने वालों ने ये सोचा

मैं छोड़ दूँगा ये रास्ता भी वो रास्ता भी

बुतान-ए-शहर तुम्हारे लरज़ते हाथों में

कोई तो संग हो ऐसा कि मेरा सर ले जाए

आज-कल मेरे तसर्रुफ़ में नहीं है लेकिन

ज़िंदगी शहर में होगी कहीं दो चार के पास

कहीं ऐसा हो दामन जला लो

हमारे आँसुओं पर ख़ाक डालो

दूर तक साथ चला एक सग-ए-आवारा

आज तन्हाई की औक़ात पे रोना आया

सुन्नत है कोई हिजरत-ए-सानी भला बताओ

जाता है कोई अपने मदीने को छोड़ कर

कैसा हुजूम-ए-कूचा-ए-तन्हाई था कि मैं

आगे बढ़ा दस्त-ओ-गरेबाँ हुए बग़ैर

कश्मकश नाख़ुन-ओ-दंदाँ की थमे तो फिर मैं

गुल-ए-आईना से खींचूँ रग-ए-हैरानी को

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