मातम फ़ज़ल मोहम्मद के शेर
पूजता हूँ कभी बुत को कभी पढ़ता हूँ नमाज़
मेरा मज़हब कोई हिन्दू न मुसलमाँ समझा
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जहाँ से हूँ यहाँ आया वहाँ जाऊँगा आख़िर को
मिरा ये हाल है यारो न मुस्तक़बिल न माज़ी हूँ
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ख़त देख कर मिरा मिरे क़ासिद से यूँ कहा
क्या गुल नहीं हुआ वो चराग़-ए-सहर हनूज़
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कोई आज़ाद हो तो हो यारो
हम तो हैं इश्क़ के असीरों में
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रुख़्सार का दे शर्त नहीं बोसा-ए-लब से
जो जी में तिरे आए सो दे यार मगर दे
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देख कर हाथ में तस्बीह गले में ज़ुन्नार
मुझ से बेज़ार हुए काफ़िर ओ दीं-दार जुदा
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आतिश का शेर पढ़ता हूँ अक्सर ब-हस्ब-ए-हाल
दिल सैद है वो बहर-ए-सुख़न के नहंग का
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अगर समझो नमाज़-ए-ज़ाहिद-ए-मग़रूर यारो
हज़ारों बार बेहतर-तर हमारी बे-नमाज़ी है
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उम्र दो-चार रोज़ मेहमाँ है
ख़िदमत-ए-मेहमाँ करूँ न करूँ
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देता है रोज़ रोज़ दिलासे नए नए
किस तरह ए'तिबार हो 'हाफ़िज़' के फ़ाल पर
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क्या कहूँ दिन को किस क़दर रोया
रात दिलबर को देख रूया में
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आज मस्जिद में नज़र आता तो है मय-कश मगर
मतलब उस का बेचना है शैख़ की दस्तार का
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जाँ-ब-लब दम भर का हूँ मेहमान-ए-यार
एक बोसा मेरी मेहमानी करो
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हाथ का बाज़ू का गर्दन का कमर का किस के
हम को तावीज़ों में यही चार ही भाए ता'वीज़
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तुख़्म-ए-रैहाँ खिला तबीब मुझे
या'नी हूँ मैं मरीज़-ए-हज़रत-ए-ख़ाल
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अपने भी इश्क़ को ज़वाल न हो
न तुम्हारे जमाल को है कमाल
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छूटता है एक तो फँसते हैं आ कर इस में दो
आज-कल है गर्म-तर क्या ख़ूब बाज़ार-ए-क़फ़स
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हिन्दू बचा ने छीन के दिल मुझ से यूँ कहा
हिन्दोस्ताँ भी किश्वर-ए-तुर्का से कम नहीं
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रहम कर हम पर भी दिल-बर हैं तिरे
इश्क़ के हाथों से आवारों के बीच
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दरिया में वो धोया था कभी दस्त-ए-हिनाई
हसरत से वहीं पंजा-ए-मर्जां में लगी आग
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ला-वलद कहते हैं हम को ला-वलद
शेर से अज़-बस कि औलादी हैं हम
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मरजा-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ है वो बुत नाम-ए-ख़ुदा
भेजते हैं उसे हिन्दू ओ मुसलमाँ काग़ज़
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इश्क़-ए-ख़ूबाँ नहीं है ऐसी शय
बाँध कर रखिए जिस को पुड़िया में
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आज कल जो कसरत-ए-शोरीदगान-ए-इश्क़ है
रोज़ होते जाते हैं हद्दाद नौकर सैकड़ों
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