माजिद देवबंदी के शेर
अफ़सोस जिन के दम से हर इक सू हैं नफ़रतें
हम ने तअल्लुक़ात उन्हीं से बढ़ा लिए
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याद रक्खो इक न इक दिन साँप बाहर आएँगे
आस्तीनों में उन्हें कब तक छुपाया जाएगा
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जिस को चाहें बे-इज़्ज़त कर सकते हैं
आप बड़े हैं आप को ये आसानी है
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फिर तुम्हारे पाँव छूने ख़ुद बुलंदी आएगी
सब दिलों पर राज कर के ताज-दारी सीख लो
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इन आँसुओं की हिफ़ाज़त बहुत ज़रूरी है
अँधेरी रात में जुगनू भी काम आते हैं
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मेरी आँखें कुछ सोई सी रहती हैं
शायद इन का ख़्वाब-नगर से रिश्ता है
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मैं जब भी तज्ज़िया करता हूँ तेरा ऐ दुनिया
इस आईने में तुझे बद-चलन सी पाता हूँ
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ख़िज़ाँ का ज़िक्र तो मेरी ज़बाँ पे था ही नहीं
बहार करती है मातम तिरे हवाले से
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