माज़िद सिद्दीक़ी के शेर
कौन अपना है इक ख़ुदा वो भी
रहने वाला है आसमानों का
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तोहमत सी लिए फिरते हैं सदियों से सर अपने
रुस्वा है बहुत नाम यहाँ अहल-ए-हुनर का
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ये सफ़र अपना कहीं जानिब-ए-महशर ही न हो
हम लिए किस का जनाज़ा हैं ये घर से निकले
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जज़्बों को ज़बान दे रहा हूँ
मैं वक़्त को दान दे रहा हूँ
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मिला है तख़्त किसे कौन तख़्त पर न रहा
ये बात और है जारी था जो सफ़र न रहा
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सामने उस यार के भी और सर-ए-दरबार भी
एक ये दिल था जिसे हर बार ख़ूँ करना पड़ा
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