माजिद-अल-बाक़री के शेर
बीस बरस से इक तारे पर मन की जोत जगाता हूँ
दीवाली की रात को तू भी कोई दिया जलाया कर
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बात करना है करो सामने इतराओ नहीं
जो नहीं जानते उस बात को समझाओ नहीं
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क़रीब देख के उस को ये बात किस से कहूँ
ख़याल दिल में जो आया गुनाह जैसा था
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होंट की सुर्ख़ी झाँक उठती है शीशे के पैमानों से
मिट्टी के बर्तन में पानी पी कर प्यास बुझाया कर
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मुझी से पूछ रहा था मिरा पता कोई
बुतों के शहर में मौजूद था ख़ुदा कोई
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सूखे पत्ते सब इकट्ठे हो गए हैं
रास्ते में एक दीवार आ गई है
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'माजिद' ने बैराग लिया है कोई ऐसी बात नहीं
इधर उधर की बातें कर के लोगों को समझाया कर
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टैग : बैराग
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इंसान में क्या भरा हुआ है
होंटों से दिमाग़ तक सिले हैं
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लोहे और पत्थर की सारी तस्वीरें मिट जाएँगी
काग़ज़ के पर्दे पर हम ने सब के रूप जमाए हैं
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अंधे मोड़ को जो भी काटे आहिस्ता गुज़रे
साइकिलें टकरा जाती हैं अक्सर मोटर से
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