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मख़्फ़ी लखनवी

1902 - 1953 | कराची, पाकिस्तान

मख़्फ़ी लखनवी के शेर

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मिरा आना जहाँ में मुनहसिर था तीन बातों पर

जफ़ा सहना वफ़ा करना और उस के बाद मर जाना

इश्क़ की फ़ितरत ने यूँ बदला मज़ाक़-ए-ज़िंदगी

जितने ग़म बढ़ने लगे उतनी ख़ुशी होने लगी

इश्क़ की अल्लाह रे फ़ित्ना-कारियाँ

पाक-दामन चाक-दामन हो गए

जला आशियाँ जब से दिल मुतमइन है

बिजली का ख़तरा धड़का ख़िज़ाँ का

पर्दा है इक बक़ा का राज़-ए-फ़ना पूछो

मर कर भी साथ हम से छूटा ज़िंदगी का

वो छुपना तिरा पर्दा-ए-रंग-ओ-बू में

वो हर रंग में मेरा पहचान जाना

बहुत जुस्तुजू की बहुत ख़ाक छानी

किधर है तू जल्वा-ए-ला-मकानी

यूँ मंज़र-ए-हस्ती पे तिरी छा गईं आँखें

इक कैफ़ सा हर चीज़ पे बरसा गईं आँखें

यूँ बे-हिजाब हैं कि हैं जैसे हिजाब में

उस बज़्म में किसी को मजाल-ए-नज़र कहाँ

वुसअत-ए-दिल अरे मआज़ अल्लाह

सारी दुनिया समाई जाती है

ख़ुदा के भरोसे पे छोड़ी है कश्ती

गिर्दाब देखा तूफ़ान जाना

हर बात का एहसास मिरे दिल से मिटा दे

ज़िंदा मुझे रखना है तो दीवाना बना दे

बिखरी हर-सू पड़ी हैं ज़ंजीरें

जोश-ए-रंगीनी-ए-बहार पूछ

जिस को इबरत दिलाई जाती है

मेरी सूरत दिखाई जाती है

वफ़ा इब्तिदा है वफ़ा इंतिहा है

ख़ुलासा है बस ये मिरी दास्ताँ का

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