मसरूर शाहजहाँपुरी के शेर
कहाँ है ताब-ओ-ताक़त जिस पे तुम को नाज़ रहता था
जवानी पर न तुम 'मसरूर' इतराते तो अच्छा था
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ख़्वाब जब से इक हसीना के नज़र आने लगे
मौलवी साहब भी ब्यूटी पार्लर जाने लगे
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मुफ़्त की पी कर कही थी एक दिन हम ने ग़ज़ल
शेर उठ उठ कर चचा ग़ालिब से टकराने लगे
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मरहूम शा'इरों का जो मिल जाए कुछ कलाम
सरक़े का ले के जाम चलो शा'इरी करें
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गए थे बाल्टी भरने पे उन से इश्क़ कर बैठे
घड़े अपने किसी मस्जिद से भर लाते तो अच्छा था
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जवानी उन को घर में चैन से रहने नहीं देती
मियाँ 'मसरूर' ही मुजरिम मगर ठहराए जाते हैं
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एक बोसा दे के वो बोले मज़ा आया नहीं
एक बोसे में रुमूज़-ए-इश्क़ खुल जाएँगे क्या
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वो न जागे कि ज़रा जागती तक़दीर मिरी
और सब जाग उठे खाट के सरकाने से
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इस बुढ़ापे में लगाया है उन्हों ने सुर्मा
बाज़ आते नहीं वो अब भी सितम ढाने से
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ससुराल में भी दाल का गलना मुहाल है
साले हैं बे-लगाम चलो शा'इरी करें
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फिर से वो योगा की वर्ज़िश कर रहे हैं बाम पर
फिर से लठ अपने मोहल्ले में वो चलवाएँगे क्या
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कहा था डॉक्टर ने बच के रहना ख़ुश-ख़ुराकी से
मगर तौबा वो बैठे हैं तो अब तक खाए जाते हैं
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एक बोसे के लिए इतना हमें दौड़ाएँगे
क्या ख़बर थी वो क़ुतुब-मीनार पर चढ़ जाएँगे
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