मतीन नियाज़ी के शेर
ज़िंदगी की भी यक़ीनन कोई मंज़िल होगी
ये सफ़र ही की तरह एक सफ़र है कि नहीं
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ग़म-ए-इंसाँ को सीने से लगा लो
ये ख़िदमत बंदगी से कम नहीं है
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तूफ़ाँ से बच के डूबी है कश्ती कहाँ न पूछ
साहिल भी ए'तिबार के क़ाबिल नहीं रहा
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आप से याद आप की अच्छी
आप तो हम को भूल जाते हैं
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यही आइना है वो आईना जो लिए है जल्वा-ए-आगही
ये जो शाएरी का शुऊर है ये पयम्बरी की तलाश है
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अनासिर की कोई तरतीब क़ाएम रह नहीं सकती
तग़य्युर ग़ैर-फ़ानी है तग़य्युर जावेदानी है
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टैग : अनासिर
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हुस्न की बे-रुख़ी को अहल-ए-नज़र
हासिल-ए-इल्तिफ़ात कहते हैं
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आतिश-ए-गुल कोई चिंगारी नहीं शो'ला नहीं
फूल खिलते हैं तो गुलशन मिरा जलता क्यूँ है
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बच्चों का सा मिज़ाज है तख़्लीक़-कार का
अपने सिवा किसी को बड़ा मानता नहीं
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ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे इंतिशार-ए-रहनुमाई से
इसी मंज़िल पे आ के आदमी दीवाना होता है
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अगर दुनिया तुझे दीवाना कहती है तो कहने दे
वफ़ादारान-ए-उल्फ़त पर यही इल्ज़ाम आता है
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आए थे बे-नियाज़ तिरी बारगाह में
जाते हैं इक हुजूम-ए-तमन्ना लिए हुए
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आदमी और दर्द से ना-आश्ना मुमकिन नहीं
अक्स से ख़ाली हो कोई आईना मुमकिन नहीं
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रुमूज़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत से आश्ना हूँ मैं
किसी को ग़म-ज़दा देखा तो रो दिया हूँ मैं
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ये ज़िंदगी जिसे अपना समझ रहे हैं सब
है मुस्तआर फ़क़त रौनक-ए-जहाँ के लिए
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ग़म की तशरीह हँसी-खेल नहीं है कोई
पहले इंसान तू बिन फिर ये हुनर पैदा कर
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तिरी समझ में न आ सकेगी किसी के अश्कों की क़द्र-ओ-क़ीमत
अभी है ना-आश्ना-ए-ग़म तू अभी तिरा दिल दुखा नहीं है
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गुलशन के परस्तारो तुम को तो पता होगा
वो कौन हैं आख़िर जो कलियों को मसलते हैं
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हो न जब तक 'मतीन' कैफ़-ए-ग़म
आदमी को ख़ुदा नहीं मिलता
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'मतीन' उन का करम वाक़ई करम है तो फिर
ये बे-रुख़ी ये तग़ाफ़ुल ये बरहमी क्या है
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ग़म-ए-मआल ग़म-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-दौराँ
हमारे इश्क़ का चर्चा कहाँ कहाँ न रहा
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हम तो आशुफ़्ता-सरी से न सँवरने पाए
आप से क्यूँ न सँवारा गया गेसू अपना
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कभी कभी तो मोहब्बत की ज़िंदगी के लिए
ख़ुद उन को हम ने उभारा है बरहमी के लिए
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गुमरही राह-नुमाई के मुक़ाबिल आई
वक़्त ने देखिए दीवार पे लिक्खा क्या है
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फ़ज़ा में गूँज रही हैं कहानियाँ ग़म की
हमीं को हौसला-ए-शरह-ए-दास्ताँ न रहा
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हम काएनात-ए-सिद्क़ को साँचे में ढाल कर
दोशीज़ा-ए-ज़बाँ की विरासत में लाए हैं
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