मीम मारूफ़ अशरफ़ के शेर
वही सब लोग 'अशरफ़' आस्तीं के साँप निकले हैं
जिन्हें शामिल समझते थे तुम अपने ख़ैर-ख़्वाहों में
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तिरे होंटों की सुर्ख़ी देख कर तो ऐसा लगता है
चबाया है किसी 'आशिक़ का दिल हिंदा-मिज़ाजी से
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जब भी चूमा है तिरे होंटों को
जिस्म से उन को जुदा जाना है
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गुज़शता साल भी 'अशरफ़' यही उम्मीद थी हम को
कि ये जो साल आया है ख़ुशी की घड़ियाँ लाएगा
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तुम्हीं को चाहेंगे ज़िंदगी भर किसी से उल्फ़त नहीं करेंगे
जो कह दिया है सो कह दिया है नई मोहब्बत नहीं करेंगे
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कब ख़बर थी कि हयात-ए-'अशरफ़'
तेरी ज़ुल्फ़ों में उलझ जाएगी
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अव्वल अव्वल तो बहुत 'अक़्ल से उलझेगा दिल
बा'द फिर आप ही दिल आप को समझाएगा
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एक ही शख़्स इब्तिदा है मिरी
एक ही शख़्स इख़्तिताम मिरा
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दूरियाँ क़ुर्बतों का बा'इस हैं
क़ुर्बतें दूरियाँ बढ़ाती हैं
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लड़ी है आँख मिरी जब से तेरी आँखों से
सिवाए तेरे मुझे कुछ नज़र नहीं आता
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मुझ से कहती है आज तुम शा'इर
हो अगर तो मिरी बदौलत हो
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उसे भी था मुझे बर्बाद करना
मुझे भी इक फ़साना चाहिए था
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देंगे ये अहल-ए-जुर्म को राहत
बे-क़ुसूरों को फाँसियाँ देंगे
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देखो मिरे शरीर में कुछ भी नहीं रहा
देखो तुम्हारा 'इश्क़ मिरा खा गया बदन
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अभी तो और बढ़ेगी ये तिश्नगी दिल की
अभी तो और भी ज़्यादा वो याद आएँगे
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अभी आग़ाज़-ए-उल्फ़त है चलो इक काम करते हैं
बिछड़ कर देख लेते हैं बिछड़ कर कैसा लगता है
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मज़े जो तेरी क़ुर्बत के थे सारे भूल बैठे हैं
मज़ा फ़ुर्क़त में तेरी हम को इतना आ गया जानाँ
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'अक़्ल कहती है कि सौदा है ज़ियाँ का
और तुझे दिल बे-तहाशा चाहता है
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तब जा के कहीं ज़ाबित-ओ-मज़बूत हुए हैं
हम साल कई आतिश-ए-दोज़ख़ में जले हैं
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अव्वल अव्वल जो देखती थीं तुम
वो ही दरकार है नज़र हम को
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सोचता हूँ क्या मिरा बनता ख़ुदा के सामने
गर न होता या-रसूलुल्लह सहारा आप का
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बात आती है दोस्तों की जब
मुझ को दुश्मन 'अज़ीज़ लगते हैं
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बहुत आसान लफ़्ज़ों में ये उस ने कह दिया हम से
नहीं तुम से मोहब्बत जाओ जो करना है सो कर लो
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ये किस तरह का सितम है ख़ुदा तिरा मुझ पर
मिरे नसीब कोई हादिसा नहीं रक्खा
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देखा जमाल-ए-यार तो मख़मूर हो गए
बे-ख़ुद हैं बे-पिए ही ये ऐसी शराब है
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सर कटा कर ही सुर्ख़-रूई है
'इश्क़ भी कर्बला का मैदाँ है
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तुम को पाना नहीं मिरा मक़्सद
अब फ़क़त तुम को भूल जाना है
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जितना जाते हैं दूर वो मुझ से
और उतना क़रीब होते हैं
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एक हम हैं कि वहीं हैं कि जहाँ बिछड़े थे
एक तू है कि कभी याँ तो वहाँ होता है
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एक बस हम ने तुझ को चाहा था
और क्या हम ने तुझ से चाहा था
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मैं तुम से दूर रह कर किस तरह ये तुम को समझाऊँ
कि मुझ से दूर रह कर किस क़दर हो तुम अकेली
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आज तस्वीर उस की देखी है
आज फिर नींद का ज़ियाँ होगा
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बिंत-ए-हव्वा को भूल जाएँ हम
ये नहीं आता इब्न-ए-आदम को
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बढ़ते ही जा रहे हैं तूफ़ान ख़्वाहिशों के
होती ही जा रही है मुझ में कमी तुम्हारी
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और तो क़ासिद नहीं कुछ उन से कहने के लिए
उन से बस तू इतना कहना याद आना छोड़ दें
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इरादा फिर किसी से कर लिया उस ने मोहब्बत का
सो अब ये देखना है कौन है ज़द में तबाही के
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किसी के याद करने का अगर होती सबब हिचकी
मिरा महबूब हो कर के परेशाँ मर गया होता
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कल इब्न-ए-आदम उन पे क़ुर्बान हो न जाएँ
तौबा वो उन के जल्वे अल्लाह वो नज़ारे
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अफ़सोस मुझ को छोड़ के जाने से पेशतर
वो जा चुका था मुझ को ख़बर बा'द में हुई
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