मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार के शेर
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो
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तिरे इश्क़ से जब से पाले पड़े हैं
हमें अपने जीने के लाले पड़े हैं
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मुझ दिल में है जो बुत की परस्तिश की आरज़ू
देखी नहीं वो आज तलक बरहमन के बीच
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की दिल ने दिल-बरान-ए-जहाँ की बहुत तलाश
कुइ दिल-रुबा मिला है न दिल-ख़्वाह क्या करे
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कहें सो किस से 'जहाँदार' उस की नज़रों में
रक़ीब काम के ठहरे और हम हैं ना-कारे
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बसान-ए-नक़्श-ए-क़दम तेरे दर से अहल-ए-वफ़ा
उठाते सर नहीं हरगिज़ तबाह के मारे
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सर-रिश्ता कुफ़्र-ओ-दीं का हक़ीक़त में एक है
जो तार-ए-सुब्हा है सो है ज़ुन्नार देखना
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मिरा ख़ून-ए-दिल यूँ बहा दश्त में
कि जंगल में लोहू के थाले पड़े
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