मिर्ज़ा अतहर ज़िया के शेर
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
मैं तो हर वक़्त मोहब्बत से भरा रहता हूँ
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
फिर खड़े हैं तिरे इंकार के मारे हुए लोग
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देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
हम हैं ख़ुद अपने ही किरदार के मारे हुए लोग
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ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
मैं अपनी लाश पे सर रख के रो रहा हूँ अभी
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न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
ख़मोशी तोड़ दो और एहतिजाज दर्ज करो
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मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
और वो शख़्स मुकम्मल मुझ में
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तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
कैसे हैं सब तिरी रफ़्तार के मारे हुए लोग
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एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
फिर नहीं माँगा कभी मैं ने दोबारा पानी
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मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
लेकिन तेरे आगे सब कुछ पत्थर है
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क्या पता जाने कहाँ आग लगी
हर तरफ़ सिर्फ़ धुआँ है मुझ में
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जश्न होता है वहाँ रात ढले
वो जो इक ख़ाली मकाँ है मुझ में
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तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
कोई बताए भला किस तरह चुनूँ ख़ुद को
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मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
या चली आई है दुनिया मिरे आईने में
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हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
ये सब मकान हैं तेरे किसी मकान में रुक
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मेरी आँखों से भी इक बार निकल
देखूँ मैं तेरी रवानी पानी
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