मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही के शेर
है ख़ुशी अपनी वही जो कुछ ख़ुशी है आप की
है वही मंज़ूर जो कुछ आप को मंज़ूर हो
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ख़ुद रहम कीजिए दिल-ए-उम्मीद-वार पर
आफी निकालिए कोई सूरत निबाह की
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है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
देता नहीं क्यूँ ज़कात इस की
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चलेगा तीर जब अपनी दुआ का
कलेजे दुश्मनों के छान देगा
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यूँ इंतिज़ार-ए-यार में हम उम्र भर रहे
जैसे नज़र ग़रीब की अल्लाह पर रहे
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बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने
ये दिन दहाड़े आए हैं पगड़ी उतारने
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मुझ सा आशिक़ आप सा माशूक़ तब होवे नसीब
जब ख़ुदा इक दूसरा अर्ज़-ओ-समा पैदा करे
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जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है
मिरे सामने उस की हस्ती नहीं है
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जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
वो हुआ जामे से बाहर मैं भी नंगा हो गया
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दुनिया का माल मुफ़्त में चखने के वास्ते
हाथ आया ख़ूब शैख़ को हीला नमाज़ का
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उमीद है हमें फ़र्दा हो या पस-ए-फ़र्दा
ज़रूर होएगी सोहबत वो यार बाक़ी है
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आया पयाम-ए-वस्ल यकायक जो यार का
मा'लूम ये हुआ कि गए दिन ज़वाल के
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सिखला रहा हूँ दिल को मोहब्बत के रंग-ढंग
करता हूँ मैं मकान की ता'मीर आज-कल
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जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
गिरा कर मस्जिदों को मय-कदे आबाद करते हैं
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बाल खोले नहीं फिरता है अगर वो सफ़्फ़ाक
फिर कहो क्यूँ मुझे आशुफ़्ता-सरी रहती है
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तोहमत-ए-जुर्म-ओ-ख़ता हिर्स-ओ-हवा ग़फ़लत-ए-दिल
हम ने बाज़ार से हस्ती के लिया क्या क्या कुछ
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अज़ाँ दे के नाक़ूस को फूँक कर
तुझे हर तरह कब पुकारा नहीं
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असीर कर के हमें हुक्म दे गया सय्याद
क़फ़स हो तंग तो उन के न बाल-ओ-पर रखना
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काबा-ओ-दैर एक समझते हैं रिंद-ए-पाक
पाबंद ये नहीं हैं हराम-ओ-हलाल के
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फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
फेंक दूँगा खोद कर गुलज़ार की दीवार को
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मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
चला फिरा मैं ज़माने में रहगुज़र की तरह
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बा'द मरने के ठिकाने लग गई मिट्टी मिरी
ख़ाक से आशिक़ की क्या क्या यार के साग़र बने
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तेरे बाज़ार-ए-दहर में गर्दूं
हम भी आए हैं इक क़बा के लिए
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जिधर को मिरी चश्म-ए-तर जाएगी
उधर काम दरिया का कर जाएगी
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लतीफ़ रूह के मानिंद जिस्म है किस का
पियादा कौन वक़ार-ए-सवार रखता है
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होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
बंद क्यूँ हो गया ख़ून-ए-जिगर आते आते
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पीरी हुई शबाब से उतरा झटक गया
शाएर हूँ मेरा मिस्रा-ए-सानी लटक गया
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सदा-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे नहीं आती
मिरे सवाल का शीशे में कुछ जवाब नहीं
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हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
क्या सैद भागता है रिहा हो के दाम से
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तारिक-ए-दुनिया है जब से 'मुंतही'
मिस्ल-ए-बेवा मादर-ए-अय्याम है
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तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
हुआ के दम से ये मुश्त-ए-ग़ुबार बाक़ी है
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उस बुत को छोड़ कर हरम-ओ-दैर पर मिटे
अक़्ल-ए-शरीफ़ से ये निहायत बईद है
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न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
न डाल दुख़्तर-ए-रज़ का अचार शीशे में
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ख़याल उस सफ़-ए-मिज़्गाँ का दिल में आएगा
हमारे मुल्क में भरती सिपाह की होगी
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