मोहसिन एहसान के शेर
मैं मुनक़्क़श हूँ तिरी रूह की दीवारों पर
तू मिटा सकता नहीं भूलने वाले मुझ को
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अब दुआओं के लिए उठते नहीं हैं हाथ भी
बे-यक़ीनी का तो आलम था मगर ऐसा न था
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सुब्ह से शाम हुई रूठा हुआ बैठा हूँ
कोई ऐसा नहीं आ कर जो मना ले मुझ को
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तन्हा खड़ा हूँ मैं भी सर-ए-कर्बला-ए-अस्र
और सोचता हूँ मेरे तरफ़-दार क्या हुए
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टैग : कर्बला
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मैं ख़र्च कार-ए-ज़माना में हो चुका इतना
कि आख़िरत के लिए पास कुछ बचा ही नहीं
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