Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
Moid Rahbar Lakhnavi's Photo'

मोईद रहबर लखनवी

1985 | लखनऊ, भारत

मोईद रहबर लखनवी के शेर

179
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

हम मुसाफ़िर हैं कहाँ घर की तरफ़ देखते हैं

हर घड़ी मील के पत्थर की तरफ़ देखते हैं

अना-परस्त हूँ मिल जाऊँ ख़ाक में लेकिन

ख़रीद सकता नहीं कोई माल ज़र से मुझे

गर कुछ नहीं है यार तिरे पास ग़म तो है

तू ख़ुश-नसीब है कि तिरी आँख नम तो है

रहो घर में ज़ियादा तो सफ़र आवाज़ देता है

सफ़र में जब निकल जाओ तो घर आवाज़ देता है

आज देखा उन्हें जब ज़माने के बाद

आँख नम हो गई मुस्कुराने के बाद

पहले ये सोचता रहता था कि तन्हा हो जाऊँ

आज तन्हा हूँ तो तन्हाई से डर लगता है

लाख तब्दीलियाँ बाज़ारों में आएँ रहबर

मैं वो सिक्का हूँ जो हर दौर में चल जाऊँगा

ख़ून का घूँट कभी ज़हर पिया है मैं ने

ज़िंदगी तुझ को बहर-हाल जिया है मैं ने

बिखर गया हूँ मैं रिश्तों की डोर से कट कर

कोई तो के समेटे इधर-उधर से मुझे

जब सामने नज़र के हो इक हुस्न-ए-बे-पनाह

ऐसे में ख़ुद को होश में रखना कमाल है

मर के भी तुझ को नई फ़िक्र के पहलू दूँगा

तू मुझे क़त्ल भी कर देगा तो ख़ुशबू दूँगा

ज़िंदगी तू मुझे किस मोड़ पे ले आई है

क्या कोई और भी गुज़रा है इधर से पहले

लोग औरों के गरेबाँ पे नज़र करते हैं

हम यही काम ब-अंदाज़-ए-दिगर करते हैं

हम ने किरदार से बदला है चलन दुनिया का

हम से सीखे कोई तहज़ीब रवादारी की

मेरी आवाज़ मिरे जिस्म में यूँ गूँजती है

जैसे सहरा में कोई दर्द की मारी आवाज़

हालात हम से शहर के यूँ पूछते हैं लोग

जैसे हम आदमी नहीं अख़बार हो गए

अंजाम-ए-हिज्र क्या है ये तुम ख़ुद ही देख लो

हम इंतिज़ार-ए-यार में पत्थर के हो गए

ये रोज़ रोज़ का झगड़ा फ़साद ठीक नहीं

मैं चाहता हूँ कि अब ऐन शीन क़ाफ़ करूँ

सब त'अल्लुक़ धरे के धरे रह गए

एक तार-ए-नफ़स टूट जाने के बाद

मसर्रतों के बहुत आस-पास भी रहे

ख़ुदा का शुक्र मगर हम उदास भी रहे

कहकशाँ चाँद सितारे हैं फ़क़त नक़्श-ए-क़दम

देखते जाओ कहाँ तक है रसाई मेरी

जिस को देखो वो बढ़ा जाता है सू-ए-मंज़िल

किस को फ़ुर्सत जो मिरे पाँव के छाले देखे

शरीफ़ाना रखो किरदार लेकिन

शराफ़त बुज़दिली होने पाए

ये दुनिया है यहाँ कुछ भी हो लेकिन

वहाँ शर्मिंदगी होने पाए

अल्लाह ने बख़्शी है मुझे ऐसी बसीरत

दरिया भी हुआ जाता है क़तरा मिरे आगे

ज़ेर-ए-असर नहीं है किसी रहनुमा के हम

मालिक इसी लिए हैं ख़ुद अपनी रज़ा के हम

दिल ही टूटा हो कुछ अजब तो नहीं

अश्क आँखों में बे-सबब तो नहीं

सर-ए-अफ़्लाक होगी रूह मिट्टी में बदन होगा

करेंगे क़द्र इक दिन यूँ ज़मीन-ओ-आसमाँ मेरी

उस की तरफ़ से मेरी तरफ़ रहे हैं लोग

आहट ये लग रही है किसी इंक़लाब की

ये उस से रब्त-ओ-ज़ब्त बढ़ाने का है सिला

उस की ख़ता को मेरी ख़ता मानते हैं लोग

जब सदा सूर की गूँजेगी ज़माने-भर में

इक फ़रिश्ते में सिमट आएगी सारी आवाज़

हमीं पे ख़त्म है मेआ'र-ए-गुलशन-ए-हस्ती

हमारे बाद ख़ुशबू चमन से आएगी

जब अर्श-ए-मुअल्ला पे मिरे नक़्श-ए-क़दम हैं

क्या चीज़ है फिर औज-ए-सुरय्या मिरे आगे

हर तरफ़ बिखरी हैं अरमानों की लाशें दूर तक

ज़िंदगी इक जंग का मैदान हो कर रह गई

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए