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मुख़्तार सिद्दीक़ी

1919 - 1972

मुख़्तार सिद्दीक़ी के शेर

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बस्तियाँ कैसे मम्नून हों दीवानों की

वुसअ'तें इन में वही लाते हैं वीरानों की

क्या क्या पुकारें सिसकती देखीं लफ़्ज़ों के ज़िंदानों में

चुप ही की तल्क़ीन करे है ग़ैरत-मंद ज़मीर हमें

मैं तो हर धूप में सायों का रहा हूँ जूया

मुझ से लिखवाई सराबों की कहानी तुम ने

जिन ख़यालों के उलट फेर में उलझीं साँसें

उन में कुछ और भी साँसों का इज़ाफ़ा कर लें

फेरा बहार का तो बरस दो बरस में है

ये चाल है ख़िज़ाँ की जो रुक रुक के थम गई

इबरत-आबाद भी दिल होते हैं इंसानों के

दाद मिलती भी नहीं ख़ूँ-शुदा अरमानों की

सहर-ए-अज़ल को जो दी गई वही आज तक है मुसाफ़िरी

तय करें तो पता चले कहाँ कौन किस की तलब में है

मेरी आँखों ही में थे अन-कहे पहलू उस के

वो जो इक बात सुनी मेरी ज़बानी तुम ने

कभी फ़ासलों की मसाफ़तों पे उबूर हो तो ये कह सुकूँ

मिरा जुर्म हसरत-ए-क़ुर्ब है तो यही कमी यहाँ सब में है

रात के बाद वो सुब्ह कहाँ है दिन के बाद वो शाम कहाँ

जो आशुफ़्ता-सरी है मुक़द्दर उस में क़ैद-ए-मक़ाम कहाँ

नूर-ए-सहर कहाँ है अगर शाम-ए-ग़म गई

कब इल्तिफ़ात था कि जो ख़ू-ए-सितम गई

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