मुख़्तार सिद्दीक़ी के शेर
मेरी आँखों ही में थे अन-कहे पहलू उस के
वो जो इक बात सुनी मेरी ज़बानी तुम ने
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मैं तो हर धूप में सायों का रहा हूँ जूया
मुझ से लिखवाई सराबों की कहानी तुम ने
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इबरत-आबाद भी दिल होते हैं इंसानों के
दाद मिलती भी नहीं ख़ूँ-शुदा अरमानों की
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बस्तियाँ कैसे न मम्नून हों दीवानों की
वुसअ'तें इन में वही लाते हैं वीरानों की
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कभी फ़ासलों की मसाफ़तों पे उबूर हो तो ये कह सुकूँ
मिरा जुर्म हसरत-ए-क़ुर्ब है तो यही कमी यहाँ सब में है
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सहर-ए-अज़ल को जो दी गई वही आज तक है मुसाफ़िरी
ऐ तय करें तो पता चले कहाँ कौन किस की तलब में है
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क्या क्या पुकारें सिसकती देखीं लफ़्ज़ों के ज़िंदानों में
चुप ही की तल्क़ीन करे है ग़ैरत-मंद ज़मीर हमें
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फेरा बहार का तो बरस दो बरस में है
ये चाल है ख़िज़ाँ की जो रुक रुक के थम गई
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नूर-ए-सहर कहाँ है अगर शाम-ए-ग़म गई
कब इल्तिफ़ात था कि जो ख़ू-ए-सितम गई
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जिन ख़यालों के उलट फेर में उलझीं साँसें
उन में कुछ और भी साँसों का इज़ाफ़ा कर लें
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रात के बाद वो सुब्ह कहाँ है दिन के बाद वो शाम कहाँ
जो आशुफ़्ता-सरी है मुक़द्दर उस में क़ैद-ए-मक़ाम कहाँ
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