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मुंशी देबी प्रसाद सहर बदायुनी

1840 - 1902

मुंशी देबी प्रसाद सहर बदायुनी के शेर

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हर इक फ़िक़रे पे है झिड़की तो है हर बात पर गाली

तुम ऐसे ख़ूबसूरत हो के इतने बद-ज़बाँ क्यूँ हो

हिदायत शैख़ करते थे बहुत बहर-ए-नमाज़ अक्सर

जो पढ़ना भी पड़ी तो हम ने टाली बे-वज़ू बरसों

चार बोसे तो दिया कीजिए तनख़्वाह मुझे

एक बोसे पे मिरा ख़ाक गुज़ारा होगा

लड़ाओ नज़र रक़ीबों से

काम अच्छा नहीं लड़ाई का

जो तेरे गुनह बख़्शेगा वाइ'ज़ वो मिरे भी

क्या तेरा ख़ुदा और है बंदे का ख़ुदा और

मलक-उल-मौत मोअज़्ज़िन है मिरा वस्ल की रात

दम निकल जाता है जब वक़्त-ए-अज़ाँ आता है

क़श्क़ा नहीं पेशानी पे उस माह-जबीं के

अल्लाह ने ये हुस्न के ख़िर्मन को है चाँका

आँख अपनी तिरी अबरू पे जमी रहती है

रोज़ इस बैत पे हम साद किया करते हैं

शायद मिज़ाज हम से मुकद्दर है यार का

लिक्खा है उस ने हम को ब-ख़्त्त-ए-ग़ुबार ख़त

काफ़िर हो फिर जो शरअ' का कुछ भी करे ख़याल

जब जाम भर के हाथ से यार अपने दे शराब

हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दर्द है मरूँ क्यूँकर

क़दम उठाऊँ जो आगे कुशादा राह मिले

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