मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी के शेर
गुफ़्तुगू की तुम से आदत हो गई है वर्ना में
जानता हूँ बात करती है कहीं तस्वीर भी
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फ़िक्र-ए-मआल थी न ग़म-ए-रोज़गार था
हम थे जहाँ में और तिरा इंतिज़ार था
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देखना है किस में अच्छी शक्ल आती है नज़र
उस ने रक्खा है मिरे दल के बराबर आईना
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तुम ऐसे बे-ख़बर भी शाज़ होंगे इस ज़माने में
कि दिल में रह के अंदाज़ा नहीं है दिल की हालत का
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फ़ना होने में सोज़-ए-शम'अ की मिन्नत-कशी कैसी
जले जो आग में अपनी उसे परवाना कहते हैं
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वो निगाह-ए-शर्मगीं हो या किसी का इंकिसार
झुक के जो मुझ से मिला वो एक ख़ंजर हो गया
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वहशियों को क़ैद से छूटे हुए मुद्दत हुई
गूँजता है शोर अब तक कान में ज़ंजीर का
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वो शम्अ नहीं हैं कि हों इक रात के मेहमाँ
जलते हैं तो बुझते नहीं हम वक़्त-ए-सहर भी
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बनने लगे हैं दाग़ सितारे ख़ुशा नसीब
तारीक आसमान शब-ए-इंतिज़ार था
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तम्हीद थी जुनूँ की गरेबाँ हुआ जो चाक
यानी ये ख़ैर-मक़्दम-ए-फ़स्ल-ए-बहार था
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सुनता हूँ कि ख़िर्मन से है बिजली को बहुत लाग
हाँ एक निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ इधर भी
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या दिल है मिरा या तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है
गुल है कि इक आईना सर-ए-राह पड़ा है
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