मुशफ़िक़ ख़्वाजा के शेर
ये लम्हा लम्हा ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश का हासिल है
कि लहज़ा लहज़ा अपने आप ही में मर रहा हूँ मैं
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मिरी नज़र में गए मौसमों के रंग भी हैं
जो आने वाले हैं उन मौसमों से डरना क्या
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दिल एक और हज़ार आज़माइशें ग़म की
दिया जला तो था लेकिन हवा की ज़द पर था
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नज़र चुरा के वो गुज़रा क़रीब से लेकिन
नज़र बचा के मुझे देखता भी जाता था
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ये हाल है मिरे दीवार-ओ-दर की वहशत का
कि मेरे होते हुए भी मकान ख़ाली है
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हज़ार बार ख़ुद अपने मकाँ पे दस्तक दी
इक एहतिमाल में जैसे कि मैं ही अंदर था
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बुझे हुए दर-ओ-दीवार देखने वालो
उसे भी देखो जो इक उम्र याँ गुज़ार गया
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