नादिर शाहजहाँ पुरी के शेर
बा'द मरने के भी अरमान यही है ऐ दोस्त
रूह मेरी तिरे आग़ोश-ए-मोहब्बत में रहे
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किसी से फिर मैं क्या उम्मीद रक्खूँ
मिरी उम्मीद तो यारब तू ही है
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जो भी दे दे वो करम से वही ले ले 'नादिर'
मुँह से माँगो तो ख़ुदा और ख़फ़ा होता है
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जल बुझूँगा भड़क के दम भर में
मैं हूँ गोया दिया दिवाली का
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फूल खुलते ही तितली भी आई
क्या कोई दोस्ती पुरानी है
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तुझे देखा तिरे जल्वों को देखा
ख़ुदा को देख कर अब क्या करूँगा
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मतलब का ज़माना है 'नादिर' कोई क्या देगा
मुझ सोख़ता-ए-क़िस्मत को देगा तो ख़ुदा देगा
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भरे रहते हैं अश्क आँखों में हर दम
मिरी हर साँस में अब ग़म की बू है
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तू ही वो फूल है जो है महबूब
पत्ते पत्ते का डाली डाली का
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पत्थरों पे नाम लिखता हूँ तिरा
देख तू ओ बुत मिरी दीवानगी
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नंग है राज़-ए-मोहब्बत का नुमायाँ होना
मर भी जाऊँ मैं अगर तुम न परेशाँ होना
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इंसान के दिल को ही कोई साज़ नहीं है
किस पर्दे में वर्ना तिरी आवाज़ नहीं है
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रहमत-ए-हक़ को न कर मायूस अपने फ़ेअ'ल से
वो भलाई में नहीं जो है बुराई में मज़ा
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हम दिल फ़िदा करें कि तसद्दुक़-ए-जिगर करें
जो भी कहें हुज़ूर वही उम्र भर करें
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