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नाहीद विर्क के शेर

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तू दर्द भी दुआ भी तू ज़ख़्म भी दवा भी

शिकवे भी हैं तुझी से और प्यार भी तुझी से

शाम की शाम से सरगोशी सुनी थी इक बार

बस तभी से तुझे इम्कान में रक्खा हुआ है

कितनी वीरानी है मेरे अंदर

किस क़दर तेरी कमी है मुझ में

बिन तिरे वक़्त ही गुज़रता है

बिन तिरे ज़िंदगी नहीं होती

बे-सबब ख़ामुशी नहीं ओढ़ी

तेरी आँखों का हुक्म माना है

ज़िंदगी इस क़दर बुरी भी नहीं

देख मैं मुस्कुरा रही हूँ ना

कोई तो बात उस की मान लेती

मोहब्बत उम्र में मुझ से बड़ी थी

कितनी ख़्वाहिशें दिल में पलती हैं मगर 'नाहीद'

हाथ ही नईं आते भागते हुए लम्हे

या'नी कि तू क़दीम जज़ीरा है इश्क़ का

और इस में हूँ हुनूत-शुदा शाहज़ादी मैं

रेज़ा रेज़ा होना बनता है मिरा

तुम मुकम्मल मेरे दिल पर उतरे हो

जाने किस सम्त उड़ता फिरता है

मेरा ये दिल तिरे ख़याल में गुम

और फिर दिल ने उस को छोड़ दिया

जब त'अल्लुक़ बहाल था ही नहीं

मान लेती हूँ मुकम्मल हो तुम

मान लेती हूँ कमी है मुझ में

मुझे दर्द की बारिशों में बहा कर

वो रहना तिरा बे-ख़बर याद आया

वो हिजरतें हों हिज्र हो या क़िस्सा-ए-विसाल

फिर से मेरे नाम सभी वाक़िआ'त कर

मैं उस के ध्यान में खोई हुई थी

सभी मिसरे ग़ज़ल के सज गए हैं

अब तो वो शहर-ए-ख़मोशाँ का मकीं हो चुका है

अपनी आँखों से मिरे आँसू बहाने वाला

ख़ुश्क होने ही नहीं देती आँख

वो जो सावन की झड़ी है मुझ में

शोख़ हवाओं के आँचल में थम थम कर

शाम से ही हैं दर्द पुराने याद आए

सुन किसी दिन तो मिरे ग़म की कहानी

तुझ को दर्द-ए-दिल बताना चाहती हूँ

मेरी आँखें तिरी दीद की लालची

या'नी तू मुझ को यूसुफ़-नुमा साहिबा

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