नज्मुस्साक़िब के शेर
मिरे हाथ में तिरे नाम की वो लकीर मिटती चली गई
मिरे चारा-गर मिरे दर्द की ही वज़ाहतों में लगे रहे
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कभी न टूटने वाला हिसार बन जाऊँ
वो मेरी ज़ात में रहने का फ़ैसला तो करे
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दिल को आज तसल्ली मैं ने दे डाली
वो सच्चा था उस के वादे झूटे थे
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बदन को जाँ से जुदा हो के ज़िंदा रहना है
ये फ़ैसला है फ़ना हो के ज़िंदा रहना है
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दुख-भरा शहर का मंज़र कभी तब्दील भी हो
दर्द को हद से गुज़रते कोई कब तक देखे
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मैं ही टूट के बिखरा और न रोया वो
अब के हिज्र के मौसम कितने झूटे थे
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फिर एक बार लड़ाई थी अपनी सूरज से
हम आईनों की तरह फिर यहाँ वहाँ टूटे
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उसे बे-नुमू किसी ख़्वाब ने कहीं गहरी नींद सुला दिया
उसे भा गई हैं कहावतें उसे भी क़फ़स में सुकून है
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तुझ बिन ख़ाली रह कर कितने साल बिताने होंगे
मेरे हाथों में तेरी तक़दीरें कब उतरेंगी
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हुनूज़ रात है जलना पड़ेगा उस को भी
कि मेरे साथ पिघलना पड़ेगा उस को भी
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अना की क़ैद से निकले मुक़ाबला तो करे
वो मेरा साथ निभाने का हौसला तो करे
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कौन है जो हर लम्हा सूरतें बदलता है
मैं किसे समझने के मरहलों में ज़िंदा हूँ
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ये जिस्म टूट के हिस्सों में बटने वाला है
फिर इस पे अपनी रिवायात कुछ नहीं होगा
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