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नसीम देहलवी

1799/ 1800 - 1866 | दिल्ली, भारत

नसीम देहलवी के शेर

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नाम मेरा सुनते ही शर्मा गए

तुम ने तो ख़ुद आप को रुस्वा किया

आँखों में है लिहाज़ तबस्सुम-फ़िज़ा हैं लब

शुक्र-ए-ख़ुदा के आज तो कुछ राह पर हैं आप

का'बा नहीं है ज़ाहिद-ए-ग़ाफ़िल निशान-ए-दोस्त

दिल ढूँड आशिक़ों का यही है मकान-ए-दोस्त

रब्त-ए-बाहम के मज़े बाहम रहें तो ख़ूब हैं

याद रखना जान-ए-जाँ गर मैं नहीं तो तू नहीं

कुफ़्र-ओ-दीं के क़ाएदे दोनों अदा हो जाएँगे

ज़ब्ह वो काफ़िर करे मुँह से कहें तकबीर हम

सैलाब-ए-चश्म-ए-तर से ज़माना ख़राब है

शिकवे कहाँ कहाँ हैं मिरे आब-दीदा के

सकिनान-ए-चर्ख़-ए-मुअल्ला बचो बचो

तूफ़ाँ हुआ बुलंद मिरे आब-दीदा का

तिरा जमाल बना मैं कभी, कभी एहसाँ

ग़रज़ ये थी कि मुझे बरगुज़ीदा होना था

तसद्दुक़ होने वाले पिस जाएँ

उठाए हाथ से दामन को चलिए

निकलते हैं बराबर अश्क मेरी दोनों आँखों से

मता-ए-दर्द तुलने की तराज़ू हो तो ऐसी हो

कभी आग़ोश में रहता कभी रुख़्सारों पर

काश आफ़त-ए-जाँ मैं तिरा आँसू होता

कार-ए-दीं या फ़िक्र-ए-दुनिया कीजिए

ज़िंदगी थोड़ी है क्या क्या कीजिए

'नसीम'-ए-देहलवी हम मोजिद-ए-बाब-ए-फ़साहत हैं

कोई उर्दू को क्या समझेगा जैसा हम समझते हैं

शौक़-ए-शराब ख़्वाहिश-ए-जाम-ओ-सुबू नहीं

है सब हराम जब से कि पहलू में तू नहीं

ख़्वाहिश-ए-वस्ल से ख़त पढ़ने के क़ाबिल रहा

लिपटे अल्फ़ाज़ से अल्फ़ाज़ मुकर्रर हो कर

मीज़ान-ए-अदालत हैं मिरे दीदा-ए-पुर-आब

हम-वज़्न हर आँसू का हर आँसू नज़र आया

भूलती हैं कब निगाहें चश्म-ए-जादू-ख़ेज़ की

हम को सामान-ए-फ़रामोशी सब अपना याद है

पड़ गई छींट तो इतना ख़फ़ा हो वाइ'ज़

मय रहेगी तिरी आग़ोश में दुख़्तर हो कर

गुंग हैं जिन को ख़मोशी का मज़ा होता है

दहन-ए-ज़ख़्म में ख़ुद क़ुफ़्ल-ए-हया होता है

मज़ा मतला का दे फ़िक्र-ए-दो-पहलू हो तो ऐसी हो

रहें हिस्से बराबर बैत-ए-अबरू हो तो ऐसी हो

ऐसे मुसाफ़िरान-ए-अदम तंग-दिल गए

मुँह भी किया आलम-ए-ईजाद की तरफ़

चर्ख़-ए-पीर ज़ोर-ए-जवानी से दर-गुज़र

अब पास चाहिए तुझे पुश्त-ए-ख़मीदा का

मतलब की बात कह सके उन से रात-भर

मा'नी भी मुँह छुपाए हुए गुफ़्तुगू में था

अल्लाह रे तरद्दुद-ए-ख़ातिर की कसरतें

तूदा बना दिया मुझे गर्द-ए-मलाल का

मतलब है मिरा आरिज़-ए-पुर-नूर का जल्वा

आशिक़ हूँ तिरा नाम को बंदा हूँ ख़ुदा का

हुस्न-ए-बरहनगी के उठाते बड़े मज़े

होता रूह को जो लिबास-ए-बदन हिजाब

आँसू पोंछेंगे कब तक अहबाब

टपका रुकेगा चश्म-ए-तर का

प्यार से दुश्मन के वो आलम तिरा जाता रहा

ऐसे लब चूसे कि बोसों का मज़ा जाता रहा

कहते हैं जिसे हुस्न वो है शम-ए-जहाँ-ताब

कहते हैं जिसे इश्क़ वो परवाना है उस का

दिल फिर उन से दोस्ती की

ख़ाना-ख़राब फिर वही की

एक से दो दाग़ दो से चार फिर तो सैकड़ों

खिलते खिलते फूल सीने पर गुलिस्ताँ हो गया

अदब-ए-बादा-परस्ती गया मस्ती में

सूरत-ए-काबा तवाफ़-ए-दर-ए-मय-खाना है

ठंडी कभी होंगी क्या गर्मियाँ तुम्हारी

आख़िर 'नसीम' का दिल कब तक जलाइएगा

तुम्हारे हुस्न ने हर दाँव में उसे जीता

हज़ार तरह से घट-बढ़ के बाज़ी हारा चाँद

मैं हूँ इक और ही लैला का माइल

तसल्ली क्या मिरी महमिल से होगी

अबरू में ख़म जबीन में चीं ज़ुल्फ़ में शिकन

आया जो मेरा नाम तो किस किस में बल पड़े

कसरत-ए-दौलत में लुत्फ़-ए-ख़ाना-बरबादी भी है

शहद के होने से लुट जाता है घर ज़ंबूर का

साकिन-ए-मस्जिद कभी गह मोतकिफ़ है दैर का

मिल्लत-ओ-दीन-ए-'नसीम'-ए-देहलवी रिंदाना है

मज़मून के भी शे'र अगर हों तो ख़ूब हैं

कुछ हो नहीं गई ग़ज़ल-ए-आशिक़ाना फ़र्ज़

सैकड़ों मन से भी ज़ंजीर मिरी भारी है

वाह क्या शौकत-ए-सामान-ए-गुनह-गारी है

क्या उस हराम-ख़ोर को जुज़ मुर्दा है नसीब

आया मुँह में गोर के लुक़्मा हलाल का

हुब्ब-ए-दुनिया उल्फ़त-ए-ज़र दिल से दम-भर कम नहीं

उस पर ज़ाहिद इरादा है ख़ुदा की याद का

ख़ूब ही फिर तो समझता मैं दिल-ए-दुश्मन से

एक साअ'त मिरे पहलू में अगर तू होता

हर्फ़ों के मिले जोड़ बढ़ा हुस्न रक़म का

हर लफ़्ज़ के पैवंद में बख़िया है क़लम का

जब फ़स्ल-ए-गुल आती है सदा देती है वहशत

ज़ंजीर का ग़ुल नारा-ए-मस्ताना है उस का

कुछ अजब तासीर थी उस बुत के नज़्ज़ारे में भी

जो मुसलमाँ उस तरफ़ गुज़रा बरहमन हो गया

रात-दिन बाज़ू-ए-मिज़्गाँ पे बँधा रहता है

है मिरा अश्क मिरे दीदा-ए-तर का ता'वीज़

यूँ नीची किए गर्दन को चलिए

ज़रा ऊँची किए चितवन को चलिए

अब वो गली जा-ए-ख़तर हो गई

हाल से लोगों को ख़बर हो गई

वो जिस रस्ते से निकले देख लेना

कि उस रस्ते में फिर रस्ता होगा

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