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नसीम ज़ाहिद

1977 | कुवैत

नसीम ज़ाहिद के शेर

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आई वो रफ़्ता रफ़्ता तक़द्दुस की राह तक

फिर यूँ हुआ कि निय्यत-ए-नासेह बिगड़ गई

मैं सब्र कर रहा हूँ तो ज़ालिम है ता'ना-ज़न

उस को ख़बर नहीं कि ख़ुदा मेरे साथ है

किरदार रहनुमा का मुझे लग रहा है यूँ

तलवार जैसे हो किसी पागल के हाथ में

बड़े अरमान से आया हुआ था

वो मुझ को लूटने मेहमान बन कर

उसे दौलत कमाने की हवस थी

नज़र से अब नज़ारा हो गई है

देख के दाग़ अपने चेहरे पर

तुम तो आईना साफ़ करने लगे

मुद्दतों पहले उड़ा है वो परिंदा लेकिन

आज तक मेरी नज़र से कभी ओझल हुआ

मुझे ख़बर है उसे ऐसा दर्द है 'ज़ाहिद'

जिसे दवा नहीं रिश्वत सुकून देती है

तुझ को है नाक़िदीन से नफ़रत

तेरे कमरे में आईना क्यों है

माँ के ख़ुलूस जैसा था मौसम बहार का

फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ है सर-फिरी औलाद की तरह

ये आँसू पोंछ लीजिए और मुस्कुराइए

चारा नहीं है कोई भी रुख़्सत किए बग़ैर

बना लिया है यहाँ इस लिए मकाँ मैं ने

ये वो जगह है जहाँ मुझ से कोई बिछड़ा था

नहीं आते मगर तुम अजनबी बिल्कुल नहीं हो

हमारे घर की दीवारें तुम्हें पहचानती हैं

मुक़द्दस अश्क हैं मुझ को मयस्सर

गुनाहों की सियाही धुल रही है

ये पेड़ है किसी की मोहब्बत की यादगार

आँधियो ये तुम से गिराया जाएगा

ता'बीर के परिंदों ने रुख़ ही बदल लिया

जब से हमारे ख़्वाब हुए जाल की तरह

दरिया में डुबो देंगे सभी शिकवे गिले हम

साहिल पे मुलाक़ात मुलाक़ात रहेगी

उफ़ शब-ए-हिज्र की सियाही आज

कुफ़्र की तीरगी से बढ़ कर है

ये बे-वक़ार सियासत का एक हिस्सा है

सरों की फ़स्ल उगाई गई है जलसे में

उफ़ रहबरों में ऐसा कोई राहबर नहीं

जिस की निगाह ज़र्रे में ख़ुर्शीद ढूँड ले

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