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निसार इटावी

1914 - 1974 | इटावा, भारत

निसार इटावी के शेर

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यक़ीनन रहबर-ए-मंज़िल कहीं पर रास्ता भूला

वगर्ना क़ाफ़िले के क़ाफ़िले गुम हो नहीं सकते

दोस्त साथ दर-ए-माज़ी से माँग लाएँ

वो अपनी ज़िंदगी कि जवाँ भी हसीं भी थी

कितने पुर-हौल अँधेरों से गुज़र कर दोस्त

हम तिरे हुस्न की रख़्शंदा सहर तक पहुँचे

ये भी हुआ कि दर तिरा कर सके तलाश

ये भी हुआ कि हम तिरे दर से गुज़र गए

सुब्ह बिछड़ कर शाम का व'अदा शाम का होना सहल नहीं

उन की तमन्ना फिर कर लेना सुब्ह को पहले शाम करो

अफ़सोस किसी से मिट सकी इंसान के दिल की तिश्ना-लबी

शबनम है कि रोया करती है बादल हैं कि बरसा करते हैं

दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं

मुस्कुराओ बात से पहले

बरसों से तिरा ज़िक्र तिरा नाम नहीं है

लेकिन ये हक़ीक़त है कि आराम नहीं है

मौसम-ए-गुल है बादल छाए खनक रहे हैं पैमाने

कैसी तौबा, तौबा तौबा, तौबा नज़्र-ए-जाम करो

ये दिल वालों से पूछो इस को दिल वाले समझते हैं

बिगाड़ आई हवा ज़ुल्फ़ें किसी की या सँवार आई

कल जो ज़िक्र-ए-जाम-ओ-मीना गया

मेरी तौबा को पसीना गया

सुन कोह-ओ-दमन को सब्ज़ ख़िलअत बख़्शने वाले

नहीं मिलता तिरे दर से ग़रीबों को कफ़न अब तक

शौक़ कितने फ़रेब देता है

मुस्कुरा कर हमारा नाम ले

नाहीद क़मर ने रातों के अहवाल को रौशन कर तो दिया

वो दीप किसी से जल सके जो दिल में उजाला करते हैं

वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी

मुझे अब हर कहानी ज़िंदगी मालूम होती है

क़फ़स भी है यहाँ सय्याद भी गुलचीं भी काँटे भी

चमन को हम समझते हैं मगर अपना चमन अब तक

कुछ हुस्न के फ़साने तरतीब दे रहा हूँ

दफ़्तर उलट रहा हूँ हर फूल हर कली का

कली की ख़ू है बहर-हाल मुस्कुराने की

वगर्ना रास किसे है हुआ ज़माने की

अब भी जो लोग सर-ए-दार नज़र आते हैं

कुछ वही महरम-ए-असरार नज़र आते हैं

मौज-ए-तख़य्युल गुल का तबस्सुम परतव-ए-शबनम बिजली का साया

धोका है धोका नाम-ए-जवानी इस को जवानी कोई समझे

बसर करे जो मुजाहिदाना हयात उसे दाइमी मिलेगी

भीक में ज़िंदगी मिली है भीक में ज़िंदगी मिलेगी

अक़्ल साथ रह कि पड़ेगा तुझी से काम

राह-ए-तलब की मंज़िल-ए-आख़िर जुनूँ नहीं

तू ने वो सोज़ दिया है कि इलाही तौबा

ज़िंदगी आग के शोलों में बसर होती है

छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना

कली कली हुस्न की कहानी नज़र नज़र इश्क़ का फ़साना

निगाहों से ना-आश्ना चंद जल्वे

पस-ए-लाला-ओ-यासमन और भी हैं

बहार हो कि मौज-ए-मय कि तब्अ की रवानियाँ

जिधर से वो गुज़र गए उबल पड़ीं जवानियाँ

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