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निशांत श्रीवास्तव नायाब

1977 | मुंबई, भारत

निशांत श्रीवास्तव नायाब के शेर

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कोई ऐसी दवा दे चारा-गर

भूल जाऊँ मैं आश्ना चेहरे

धूप झुमके पे जब पड़ी उस के

डर के सूरज ने फेर ली आँखें

चूड़ियाँ क्यूँ उतार दीं तुम ने

सुब्हें कितनी उदास रहती हैं

हम उदासी के परस्तार सही

हँसते चेहरों को दुआ देते हैं

सिवा उस के कोई और मेरा दोस्त बन पाए

वो इस डर से ज़माना में मुझे बदनाम करता है

मैं एक पल में अँधेरे से हार जाऊँगा

तमाम उम्र चराग़ों के बीच गुज़री है

रात अब अपने इख़्तिताम पे है

एहतिरामन दिए बुझा दीजे

छाते मतलब खो देते हैं

क्यों इतनी बारिश होती है

हिफ़ाज़त हर किसी की वो बड़ी ख़ूबी से करता है

हवा भी चलती रहती है दिया भी जलता रहता है

मेरे ग़म मुझ से ये पूछा करते हैं

घर में पंखा है तो रस्सी भी होगी

एक भी पत्थर आया राह में

नींद में हम उम्र भर चलते रहे

जुनूँ को ढाल बनाया तो बच गए वर्ना

ये ज़िंदगी हमें मजबूर कर भी सकती थी

जिस की दस्तक में बे-यक़ीनी हो

ऐसे मेहमान से नहीं मिलना

धूप बिस्तर तलक चली आई

फिर भी तकिए पे है नमी बाक़ी

खुलते खुलते मुझ पे खुला ये

मैं भी दुनिया के जैसा हूँ

ये इश्क़ ही था जिस से मिली शोहरतें तुम्हें

वर्ना तुम्हारा शहर तुम्हें जानता था

वो चाहते हैं कि मंज़िल का ज़िक्र तो आए

मगर कहानी से रस्ता हटा लिया जाए

ब-ज़ाहिर दश्त की जानिब तो बढ़ता जा रहा है

मगर सब रास्ते भी याद करता जा रहा है

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