परवीन कुमार अश्क के शेर
फलदार था तो गाँव उसे पूजता रहा
सूखा तो क़त्ल हो गया वो बे-ज़बाँ दरख़्त
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ज़मीं को ऐ ख़ुदा वो ज़लज़ला दे
निशाँ तक सरहदों के जो मिटा दे
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किसी किसी को थमाता है चाबियाँ घर की
ख़ुदा हर एक को अपना पता नहीं देता
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हवेलियाँ भी हैं कारें भी कार-ख़ाने भी
बस आदमी की कमी देखता हूँ शहरों में
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समुंदर आँख से ओझल ज़रा नहीं होता
नदी को डर किसी चट्टान का नहीं होता
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