Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
noImage

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

1866 | दिल्ली, भारत

क्लासिकी दौर के नुमायाँ शायरों में शामिल

क्लासिकी दौर के नुमायाँ शायरों में शामिल

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़ के शेर

1.1K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

आबदीदा हो के वो आपस में कहना अलविदा'अ

उस की कम मेरी सिवा आवाज़ भर्राई हुई

ज़ाहिद सँभल ग़ुरूर ख़ुदा को नहीं पसंद

फ़र्श-ए-ज़मीं पे पाँव दिमाग़ आसमान पर

गर आप पहले रिश्ता-ए-उल्फ़त तोड़ते

मर मिट के हम भी ख़ैर निभाते किसी तरह

दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे

रहेंगी उन के संददुक़चा में दीं की कुंजियाँ कब तक

मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में बुतो

ईमान का ख़याल इस्लाम का लिहाज़

निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद

और देखते हैं अबरू-ए-ख़मदार की तरफ़

वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को

जिस ने दुश्वार किया है मिरी आसानी को

जुनूँ होता है छा जाती है हैरत

कमाल-ए-अक़्ल इक दीवाना-पन है

देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में

तू सरापा हुस्न का नक़्शा है मैं तस्वीर-ए-इश्क़

मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का

गर हुक्म हो शुरूअ' करे अपना काम हिर्स

मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता

उड़ा ही लेता दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर से काग़ज़

होती शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ

गर पहले भी बुतख़ानों में होते सनम ऐसे

पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू

मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़

क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को

मस्जिदें काफ़ी होतीं क्या ख़ुदा की याद को

किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा

मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों

भेज तो दी है ग़ज़ल देखिए ख़ुश हों कि हों

कुछ खटकते हुए अल्फ़ाज़ नज़र आते हैं

आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था

किसी के बस में था मजबूर था लाचार था क्या था

बद-क़िस्मतों को गर हो मयस्सर शब-ए-विसाल

सूरज ग़ुरूब होते ही ज़ाहिर हो नूर-ए-सुब्ह

किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर

इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'

इक अदना सा पर्दा है इक अदना सा तफ़ावुत

मख़्लूक़ में माबूद में बंदे में ख़ुदा में

फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में

ढाल में हैं फूल फल तलवार में

हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी

ख़ुदा जाने तुम्हारा परतव-ए-रुख़्सार था क्या था

बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला

दो फ़रंगी सैर को निकले हैं मुल्क-ए-शाम से

अगर लोहे के गुम्बद में रखेंगे अक़रबा उन को

वहीं पहुँचाएगा आशिक़ किसी तदबीर से काग़ज़

चुभेंगे ज़ीरा-हा-ए-शीशा-ए-दिल दस्त-ए-नाज़ुक में

सँभल कर हाथ डाला कीजिए मेरे गरेबाँ पर

कुछ तो कमी हो रोज़-ए-जज़ा के अज़ाब में

अब से पिया करेंगे मिला कर गुलाब में

मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं

उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर

अहल-ए-दुनिया बावले हैं बावलों की तू सुन

नींद उड़ाता हो जो अफ़्साना उस अफ़्साना से भाग

वाइ'ज़ को लअ'न-तअ'न की फ़ुर्सत है किस तरह

पूरी अभी ख़ुदा की तरफ़ लौ लगी नहीं

ठहर जाओ बोसे लेने दो तोड़ो सिलसिला

एक को क्या वास्ता है दूसरे के काम से

उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था

मुकम्मल हो चुके थे जिस घड़ी अर्ज़-ओ-समा बन कर

दिलवाइए बोसा ध्यान भी है

इस क़र्ज़ा-ए-वाजिब-उल-अदा का

सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय

ज़ोफ़ सा कुछ गया ईमान में

सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई

उड़ गई काफ़ूर बन बन कर हया आई हुई

कभी जाएगा आशिक़ से देख-भाल का रोग

पिलाओ लाख उसे बद-मज़ा दवा-ए-फ़िराक़

मर चुका मैं तो नहीं इस से मुझे कुछ हासिल

बरसे गिर पानी की जा आब-ए-बक़ा मेरे बा'द

पूछ ले 'परवीं' से या क़ैस से दरयाफ़्त कर

शहर में मशहूर है तेरे फ़िदाई का इश्क़

जाँ घुल चुकी है ग़म में इक तन है वो भी मोहमल

मअ'नी नहीं हैं बिल्कुल मुझ में अगर बयाँ हूँ

पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया

ग़िल्मान-ए-महर साथ लिए आई हूर-ए-सुब्ह

Recitation

Jashn-e-Rekhta 10th Edition | 5-6-7 December Get Tickets Here

बोलिए