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क़लक़ मेरठी

1832/3 - 1880

क़लक़ मेरठी के शेर

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ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं

सभी मजबूर हैं दिल से मोहब्बत ही जाती है

तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही

तू नहीं और सही और नहीं और सही

तुझ से ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो

पर तशफ़्फ़ी है कि इक दुश्मन-ए-जाँ रखते हैं

हो मोहब्बत की ख़बर कुछ तो ख़बर फिर क्यूँ हो

ये भी इक बे-ख़बरी है कि ख़बर रखते हैं

मूसा के सर पे पाँव है अहल-ए-निगाह का

उस की गली में ख़ाक उड़ी कोह-ए-तूर की

किधर क़फ़स था कहाँ हम थे किस तरफ़ ये क़ैद

कुछ इत्तिफ़ाक़ है सय्याद आब-ओ-दाने का

बोसा देने की चीज़ है आख़िर

सही हर घड़ी कभी ही सही

ये है वो है मैं हूँ तू है

हज़ारों तसव्वुर और इक आरज़ू है

कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था

दैर में जो पाक था का'बे में वो नापाक था

हर संग में काबे के निहाँ इश्वा-ए-बुत है

क्या बानी-ए-इस्लाम भी ग़ारत-गर-ए-दीं था

हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है

फ़क़त मैं ही मैं हूँ तो फिर तू ही तू है

रहम कर मस्तों पे कब तक ताक़ पर रक्खेगा तू

साग़र-ए-मय साक़िया ज़ाहिद का ईमाँ हो गया

है अगर कुछ वफ़ा तो क्या कहने

कुछ नहीं है तो दिल-लगी ही सही

वाइ'ज़ ये मय-कदा है मस्जिद कि इस जगह

ज़िक्र-ए-हलाल पर भी है फ़तवा हराम का

पहले रख ले तू अपने दिल पर हाथ

फिर मिरे ख़त को पढ़ लिखा क्या है

ख़ुदा से डरते तो ख़ौफ़-ए-ख़ुदा करते हम

कि याद-ए-बुत से हरम में बुका करते हम

दिल के हर जुज़्व में जुदाई है

दर्द उठे आबला अगर बैठे

क्यूँकर आस्तीं में छुपा कर पढ़ें नमाज़

हक़ तो है ये अज़ीज़ हैं बुत ही ख़ुदा के बा'द

लगती आँख तो सोने में क्या बुराई थी

ख़बर कुछ आप की होती तो बे-ख़बर होता

अम्न और तेरे अहद में ज़ालिम

किस तरह ख़ाक-ए-रहगुज़र बैठे

जबीन-ए-पारसा को देख कर ईमाँ लरज़ता है

मआ'ज़-अल्लाह कि क्या अंजाम है इस पारसाई का

ख़ुद को कभी देखा आईने ही को देखा

हम से तो क्या कि ख़ुद से ना-आश्ना रहा है

झगड़ा था जो दिल पे उस को छोड़ा

कुछ सोच के सुल्ह कर गए हम

बे-तकल्लुफ़ मक़ाम-ए-उल्फ़त है

दाग़ उट्ठे कि आबला बैठे

वो ज़िक्र था तुम्हारा जो इंतिहा से गुज़रा

ये क़िस्सा है हमारा जो ना-तमाम निकला

कसरत-ए-सज्दा से पशेमाँ हैं

कि तिरा नक़्श-ए-पा मिटा बैठे

जी है ये बिन लगे नहीं रहता

कुछ तो हो शग़्ल-ए-आशिक़ी ही सही

शहर उन के वास्ते है जो रहते हैं तुझ से दूर

घर उन का फिर कहाँ जो तिरे दिल में घर करें

मोहब्बत वो है जिस में कुछ किसी से हो नहीं सकता

जो हो सकता है वो भी आदमी से हो नहीं सकता

ज़हे क़िस्मत कि उस के क़ैदियों में गए हम भी

वले शोर-ए-सलासिल में है इक खटका रिहाई का

तेरा दीवाना तो वहशत की भी हद से निकला

कि बयाबाँ को भी चाहे है बयाबाँ होना

गली से अपनी इरादा कर उठाने का

तिरा क़दम हूँ फ़ित्ना हूँ मैं ज़माने का

फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए

तुम मुझ को छोड़ दो तो मैं तुम को रिहा करूँ

आसमाँ अहल-ए-ज़मीं से क्या कुदूरत-नाक था

मुद्दई भी ख़ाक थी और मुद्दआ' भी ख़ाक था

तू देख तो उधर कि जो देखा जाए फिर

तू गुफ़्तुगू करे तो कभी गुफ़्तुगू हो

तिरी नवेद में हर दास्ताँ को सुनते हैं

तिरी उमीद में हर रहगुज़र को देखते हैं

अंदाज़ा आदमी का कहाँ गर हो शराब

पैमाना ज़िंदगी का नहीं गर सुबू हो

उस से मिलिए जिस से मिले दिल तमाम उम्र

सूझी हमें भी हिज्र में आख़िर को दूर की

क्या ख़ाना-ख़राबों का लगे तेरे ठिकाना

उस शहर में रहते हैं जहाँ घर नहीं होता

कौन जाने था उस का नाम-ओ-नुमूद

मेरी बर्बादी से बना है इश्क़

मैं राज़दाँ हूँ ये कि जहाँ था वहाँ था

तू बद-गुमाँ है वो कि जहाँ है वहाँ नहीं

वो संग-दिल अंगुश्त-ब-दंदाँ नज़र आवे

ऐसा कोई सदमा मिरी जाँ पर नहीं होता

अश्क के गिरते ही आँखों में अंधेरा छा गया

कौन सी हसरत का यारब ये चराग़-ए-ख़ाना था

नाला करता हूँ लोग सुनते हैं

आप से मेरा कुछ कलाम नहीं

जो कहता है वो करता है बर-अक्स उस के काम

हम को यक़ीं है वा'दा-ए-ना-उस्तवार का

वाइ'ज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया

फैला गया चराँद शराब-ए-तहूर की

हम उस कूचे में उठने के लिए बैठे हैं मुद्दत से

मगर कुछ कुछ सहारा है अभी बे-दस्त-ओ-पाई का

किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई

ग़ैर यूसुफ़ नहीं ग़ुलाम नहीं

बुत-ख़ाने की उल्फ़त है काबे की मोहब्बत

जूयाई-ए-नैरंग है जब तक कि नज़र है

पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने

कि वो पर्दा-नशीं बाहर जाने जा जाने

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