रफ़ी रज़ा के शेर
मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी
चराग़ जैसे कोई बात करने वाला था
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एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है
इस समुंदर में कोई और समुंदर गुम है
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धूप छाँव का कोई खेल है बीनाई भी
आँख को ढूँड के लाया हूँ तो मंज़र गुम है
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टैग : बीनाई
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किस ने रोका है सर-ए-राह-ए-मोहब्बत तुम को
तुम्हें नफ़रत है तो नफ़रत से तुम आओ जाओ
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पड़ा हुआ हूँ मैं सज्दे में कह नहीं पाता
वो बात जिस से कि हल्का हो कुछ ज़बान का बोझ
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तू ख़ुद अपनी मिसाल है वो तो है
इसी अपनी मिसाल में मुझे मिल
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आईने को तोड़ा है तो मालूम हुआ है
गुज़रा हूँ किसी दश्त-ए-ख़तरनाक से आगे
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एक दिन अपना सहीफ़ा मुझ पे नाज़िल हो गया
उस को पढ़ते ही मिरी सारी ख़ताएँ मर गईं
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एक उजड़ी हुई हसरत है कि पागल हो कर
बैन हर शहर में करती हुई देखी गई है
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अगरचे वक़्त मुनाजात करने वाला था
मिरा मिज़ाज सवालात करने वाला था
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