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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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रफ़ी रज़ा के शेर

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मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी

चराग़ जैसे कोई बात करने वाला था

धूप छाँव का कोई खेल है बीनाई भी

आँख को ढूँड के लाया हूँ तो मंज़र गुम है

एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है

इस समुंदर में कोई और समुंदर गुम है

किस ने रोका है सर-ए-राह-ए-मोहब्बत तुम को

तुम्हें नफ़रत है तो नफ़रत से तुम आओ जाओ

पड़ा हुआ हूँ मैं सज्दे में कह नहीं पाता

वो बात जिस से कि हल्का हो कुछ ज़बान का बोझ

तू ख़ुद अपनी मिसाल है वो तो है

इसी अपनी मिसाल में मुझे मिल

आईने को तोड़ा है तो मालूम हुआ है

गुज़रा हूँ किसी दश्त-ए-ख़तरनाक से आगे

एक दिन अपना सहीफ़ा मुझ पे नाज़िल हो गया

उस को पढ़ते ही मिरी सारी ख़ताएँ मर गईं

एक उजड़ी हुई हसरत है कि पागल हो कर

बैन हर शहर में करती हुई देखी गई है

अगरचे वक़्त मुनाजात करने वाला था

मिरा मिज़ाज सवालात करने वाला था

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